उपचुनाव: भाजपा के लिए चाल, चरित्र और चेहरा बदलने का वक़्त 

 पुणे : समाचार ऑनलाईन

अब इसे मोदी लहर का कमज़ोर होना कहें या योगी सरकार की विफलता कि गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटें भाजपा के हाथों से फिसलती दिख रही हैं। यहाँ हुए उपचुनावों में उसकी शिकस्त लगभग तय है। इसे महज उपचुनाव कहकर भाजपा अपनी हार के असर को छोटा साबित करने का प्रयास कर सकती है, लेकिन इसके दूरगामी परिणामों से वह खुद अच्छी तरह वाकिफ है। ये दोनों ही सीट उत्तर प्रदेश में कमल खिलने के बाद खाली हुईं थीं। गोरखपुर सीट पर योगी आदित्यनाथ विराजमान थे और फूलपुर पर केशव प्रसाद मौर्य। इस चुनाव को 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों और यूपी की योगी सरकार के लिटमस टेस्ट के तौर पर देखा जा रहा था। अगर इसी नजरिये पर आगे बढ़ें, तो भाजपा को दोनों ही पक्षों पर नुकसान हुआ है।
हाथ मिलाने से बनी बात

इस चुनाव में भाजपा के वोट प्रतिशत में गिरावट का सबसे बड़ा कारण रहा मायावती और अखिलेश यादव का साथ आना। दोनों दलों ने भाजपा को किनारे करने के लिए हाथ मिलाया और कामयाबी भी हासिल की। यानी अगले साल लोकसभा चुनावों में माया और अखिलेश साथ-साथ नज़र आ सकते हैं, इसके अलावा कांग्रेस भी इनकी ताकत मजबूत कर सकती है। चुनाव पूर्व जब सपा और बसपा ने गठबंधन का ऐलान किया, तो भाजपा नेताओं ने इस फैसले का जमकर मजाक उड़ाया। जबकि नतीजों के बाद अब वही नेता जुबान पर ताले लगाए बैठे हैं। राजनीति में अप्रत्याशित कुछ भी नहीं होता, जहां समान विचारधारा वाली पार्टियाँ ज्यादा दूर तक साथ नहीं चल पातीं, वहीं विरोधी पार्टियाँ कभी-कभी सारे समीकरण बिगाड़ देती हैं। इस चुनाव में बसपा ने सपा के समर्थन में अपने उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारे, जिसका फायदा सीधे तौर पर सपा को मिला। खुद अखिलेश भी मान रहे हैं कि बसपा ने कामयाबी के साथ सपा को अपने वोट ट्रांसफर कराए हैं।

28 साल का राज ख़त्म?

भाजपा को सबसे ज्यादा आघात गोरखपुर सीट गंवाने पर लग सकता है। क्योंकि यहाँ पर वो 28 सालों से राज करती आ रही थी। हिंदू महासभा के नेता रहे गोरक्षपीठ के महंत अवैद्यनाथ ने 1991 में भाजपा की टिकट पर गोरखपुर सीट से जीत हासिल की थी। इसके बाद 1996 में भी वह जीते। फिर 1998 में उनके शिष्य और मौजूदा सीएम योगी आदित्यनाथ सांसद बने और तब से बीते साल तक वह इस सीट का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। गोरखपुर को लेकर भाजपा काफी हद तक आश्वस्त थी कि जीत उसे ही मिलेगी, या यह कहना ज्यादा उचित होगा कि अति-आत्मविश्वासी हो गई थी।

सपा को मिला फायदा

गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र में निषाद समुदाय का वर्चस्व है। यहां करीब 3.6 लाख निषाद मतदाता हैं। सपा ने इसीलिए यहां से प्रवीण निषाद को मैदान में उतारा था। हालांकि 2014 में भी सपा ने निषाद उम्मीदवार राजमति को उतारा था, लेकिन उस वक़्त उसे हार का सामना करना पड़ा। इसकी एक वजह तो है कि सामने योगी आदित्यनाथ थे और दूसरी यह कि उनका सरकार से कोई लेना देना नहीं था। यानी सरकार के कामकाज से उनकी प्रतिष्ठा प्रभावित होने वाली नहीं थी। इस बार सपा को न सिर्फ बसपा का साथ मिला, बल्कि निषाद पार्टी और पीस पार्टी जैसे छोटे दलों ने भी उसे समर्थन दिया। निषाद वोट एकतरफा समाजवादी पार्टी की झोली में आए। इसके अलावा यहां यादव और दलितमतदाता करीब 2 लाख हैं। सीधी लड़ाई में सपा को यादव, दलित, मुस्लिम और निषाद वोटों का भरपूर साथ मिला, जबकि भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा।

क्या यह जनता का बदला है?

मतदाताओं के भाजपा से किनारा करने की सबसे बड़ी वजह योगी सरकार के कार्यकाल में यूपी का भला न हो पाना भी है। केंद्र में मोदी की तरह योगी ने भी जनता को कई सपने दिखाए, लेकिन वो हकीकत में तब्दील नहीं हो सके। विकास के मामले में यूपी का हाल वैसा ही है, जैसा पिछली सरकारों के वक़्त था। कानून व्यवस्था दुरुस्त करने के नाम पर महज एनकाउंटर का खेल खेला जा रहा है। इसके अलावा ताजमहल या मुस्लिम टोपी पहनने को लेकर सीएम योगी के जवाबों ने भी जनता को आहत किया है। यूपी वासियों के लिए महज लखनऊ में बैठने वाली सरकार बदली है,  प्रदेश के हालात नहीं। ऐसे में भाजपा को नुकसान स्वाभाविक है। ये चुनाव परिणाम एक तरह से भाजपा के लिए चेतावनी संकेत हैं कि चाल और चरित्र नहीं बदला 2019 में काफी कुछ बदल सकता है।