तोगड़िया प्रकरण बताता है कि मोदी विरोधियों को खामोश बैठना होगा

नीरज नैयर

राजनीति में दुश्मनी जितनी अस्थाई होती है, दोस्ती भी उतनी ही कच्ची। किसी ज़माने में नरेंद्र मोदी और प्रवीण तोगड़िया दोस्त हुआ करते थे और आज एक-दूसरे का चेहरा भी देखना पसंद नहीं करते। विश्व हिंदू परिषद यानी विहिप से तोगड़िया की विदाई के पीछे भी रिश्तों में आये बदलाव को वजह माना जा रहा है। तोगड़िया तीन दशक तक इस संगठन का चेहरा रहे, वह एक तरह से विहिप का पर्याय बन गए थे। खुद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि इस तरह विहिप से जाना होगा। इस बात के संकेत तो तभी मिल गए थे जब तोगड़िया ने अपने एनकाउंटर का शक जताया था, लेकिन आधिकारिक मुहर अभी लगी है। दरअसल, विहिप के 52 वर्षों के इतिहास में पहली बार हुए चुनाव में वीएस कोकजे दो तिहाई बहुमत से अध्यक्ष चुना गया। विहिप का अध्‍यक्ष ही अंतरराष्‍ट्रीय कार्यकारी अध्‍यक्ष को चुनता है। तोगड़िया इस संगठन के अंतरराष्‍ट्रीय कार्यकारी अध्‍यक्ष थे ऐसे में उनका जाना तय था, क्योंकि कोकजे आलोक कुमार को यह जगह देना चाहते थे। तोगड़िया ने अपने प्रत्याशी राघव रेड्डी को मैदान में उतारा था, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। यह हार महज वोटों की नहीं थी बल्कि तोगड़िया के प्रभाव की भी हार थी। इसलिए उन्होंने स्वयं खुद को विहिप से अलग कर लिया।

 …तो शायद ऐसा होता
अगर यह चुनाव उस दौर में होते जब मोदी भाजपा में इतने शक्तिशाली नहीं थे, तो निश्चित रूप से फैसला तोगड़िया के पक्ष में आता। तोगड़िया हिंदुत्व के पोस्टरबॉय थे और संघ में उन्हें मोदी जितना ही सम्मान प्राप्त था। विहिप, संघ का ही एक आनुषांगिक संघटन है। जिस तरह भाजपा में होने वाली हलचल संघ से होकर गुज़रती है, ठीक उसी तरह विहिप के कामकाज पर भी संघ का प्रभाव रहता है। लिहाजा यह कहना भी गलत नहीं होगा कि तोगड़िया समर्थक की हार में संघ की भी भूमिका हो सकती है। पिछले कुछ समय से जिस तरह तोगड़िया नरेंद्र मोदी पर कटाक्ष कर रहे थे, उससे संघ में उन्हें लेकर भारी नाराजगी थी। कहा जाता है कि जब तोगड़िया ने पहली बार मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर ऊँगली उठाई, तो उन्हें संघ की ओर से खामोश रहने की हिदायत दी गयी, लेकिन वह खामोश नहीं हुए।

 खूब तीर दागे थे
तोगड़िया ने गौररक्षा, राम मंदिर और हिंदुत्व के मुद्दे पर मोदी सरकार पर नरम रुख अख्तियार करने का आरोप लगाया था। उन्होंने यह भी कहा था कि भाजपा 1989 के पालमपुर प्रस्ताव को भुला चुकी है। यह प्रस्ताव अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए कानून लाने से संबंधित है। उन्होंने विकास को लेकर मोदी सरकार के दावों पर भी सवाल उठाये। चूँकि सवाल अपने ही खेमे से उठ रहे थे, इसलिए उनकी चुभन ज्यादा थी। और इस चुभन को दूर करने के एकमात्र रास्ता तोगड़िया को अलग-थलग करना था। संघ और भाजपा 2019 की रणनीति को बेहद करीने से तैयार करने में लगे हैं, इसके तहत सबसे पहले विरोधी स्वरों को शांत किया जा रहा है।

आखिर कहाँ गई दोस्ती?
तोगड़िया के सवाल और उनके इस हाल को देखते हुए यह प्रश्न पूछा जाना स्वाभाविक है कि आखिर मोदी के साथ उनकी दोस्ती की बलि कैसे चढ़ी? ये दोनों गुजराती नेता 1972 से दोस्त थे। 1983 में तोगड़िया ने विहिप का दामन थामा और 1984 में मोदी भाजपा में आ गए। जिस तरह नाम अलग होने के बावजूद यह संगठन आंतरिक रूप से एक दूसरे से जुड़े हैं, ठीक वैसे ही मोदी और तोगड़िया भी आपस में जुड़े रहे। लेकिन मोदी के गुजरात की सत्ता सँभालने के बाद से इनके बीच दूरियां बढ़ती गईं। कहा जाता है कि दोनों के रिश्तों में खटाव इस हद तक पैदा हो गया था कि 2002 में मोदी ने संघ से स्पष्ट कर दिया था कि तोगड़िया सरकार के कामकाज में दखल नहीं देंगे। इसके बाद राज्य सरकार द्वारा गांधीनगर में 200 मंदिरों को ढहाया जाना और लालकृष्ण आडवाणी के जिन्ना प्रेम का विरोध करने वाले विहिप कार्यकर्ताओं पर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज करना तोगड़िया और मोदी के रिश्तों का अंत साबित हुआ।

कुल मिलकर कहा जाए तो तोगड़िया को हमेशा के लिए किनारे करके संघ ने यह स्पष्ट कर दिया है कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ उठने वाले स्वर बर्दाश्त नहीं किये जायेंगे। लिहाजा मोदी विरोधियों को अब खामोश बैठने होगा, कम से कम तब तक जब तक वह भाजपा या उससे जुड़े संगठनों में रहना चाहते हैं।