राष्ट्रीय पर्व के प्रति यह भाव हमें कहां ले जाएगा?

नीरज नैयर
देश का 72वां स्वतंत्रता दिवस हर बार की तरह आया और खामोशी से चला गया. खामोशी इसलिए कि उल्लास और उत्साह का शोर महज स्कूलों, परेड ग्राउंड और मुल्क की राजधानी दिल्ली के एक खास हिस्से में सुनाई दिया. 15 अगस्त और 26 जनवरी की तैयारी हर साल स्कूलों से शुरू होकर परेड ग्राउंड्स में खत्म हो जाती है. इसके समापन पर एक शानदार जलसा होता है, जिसमें मंत्री, संतरी, अधिकारी और कुछ लोग पहुंचते हैं. झंडावंदन किया जाता है, सलामी ली जाती है और थोड़ी ही देर में सबकुछ समान्य हो जाता है. देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस जलसे में शरीक नहीं होता, अगली सुबह उसे ये भी याद नहीं रहता कि बीती रात देश ने किस मुकाम को छुआ है. हां उसे इतना याद जरूर रहता है कि सालाना जलसे की छुट्टी में उसके व्यक्तिगत कामों की लिस्ट में क्या छूट गया.

यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि हम राष्ट्रीय पर्वों को मनाने की महज रस्मअदायगी भर कर रहे हैं, और आम जनता ने इस रस्मअदायगी का ठेका भी सरकार और उसके नुमाइंदों पर छोड़ रखा है. 26 जनवरी या 15 अगस्त को राष्ट्रीय ध्वज फहरे या न फहरे, देशभक्ति के गीत गाए जाएं या न गाए जाएं हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. हमारा सरोकार सिर्फ छुट्टी और उसके उपयोग तक सीमित होकर रह गया है. यह निहायत ही संवेदनशील और सोचनीय मु्द्दा है कि जिस दिन हर भारतीय को एक साथ खड़े होकर राष्ट्रीय पर्व का हिस्सा बनना चाहिए उस दिन आधे से ज्यादा लोग चादर तानकर क्यों सो रहे होते हैं? इसे बदलाव का एक चक्र कहा जा सकता है, क्योंकि पहले स्थिति ऐसी बिल्कुल नहीं थी. ज्यादा पीछे तो मैं नहीं जा सकता, पर अपने अब तक के सफर में मैंने इस जोश को ठंडा होते देखा है. बचपन के दिनों में जब थोड़ी बहुत समझ आ जाती है, तब मैं और मेरे भाई बहन जितनी तैयारी होली के लिए किया करते थे, उससे कहीं ज्यादा 15 अगस्त या 26 जनवरी के लिए करते थे. हम कई दिनों पहले से ही पैसे इकट्ठा करना शुरू कर दिया करते थे ताकि झंडा बनाने के लिए कपड़ा खरीदा जा सके. पॉकेट मनी के नाम पर कुछ खास मिलता नहीं था, सो रेडीमेट झंडे खरीदने के बारे में सोचना भी मुश्किल था और प्लास्टिक का झंडा लगाना हमें मंजूर नहीं था. कपड़े को तिरंगे में तब्दील करने का काम मैं खुद किया करता था, हो सकता है कि उन दिनों राष्ट्रध्वज की शान में हमसे कुछ कमी रह जाती हो मगर हमारी भावना कभी वैसी नहीं रही.

हमारा झंडावंदन दिल्ली में तिरंगा फहराने के बाद ही होता था, क्योंकि आंख खुलने के साथ ही कदम टीवी का स्विच ऑन करने की तरफ बढ़ लिया करते थे, ताकि परेड देखी जा सके. टीवी में रिमोट न होने का मलाल भी खूब होता था, पर मलाल में फंसकर हम परेड का एक भी पल गंवाना नहीं चाहते थे. परेड के वक्त जब प्रधानमंत्री सलामी ले रहे होते हमारा नाश्ता बिस्तर पर बैठे-बैठे ही चल रहा होता. उस वक्त ब्रश करने जाना दुनिया का सबसे बुरा काम लगता, क्योंकि उस थोड़े वक्त के लिए हमें टीवी से नजरें हटानी पड़तीं. ध्वजारोहण के लिए हम छत के ऊपर बने छोटे से कमरे की छत का चुनाव करते, हालांकि वहां तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां नहीं हुआ करती थीं. फिर भी दीवार से बाहर निकल रहीं ईंटों और लोहे की ग्रिल को सहारा बनाकर छत पर पहुंचते, तिरंगा फहराते, सलामी देते और नीचे उतर आते. नीचे उतरने के बाद लहराते तिरंगे को देखकर जो खुशी मिलती उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. पूरी कॉलोनी में सिर्फ मंदिर को छोड़कर जहां वरिष्ठ नागरिकों द्वारा ध्वजारोहण किया जाता था, हमारे घर की छत पर तिरंगा शान से लहराता. सूरज ढलने से पहले ही हम तिरंगे को उतारकर तय बनाकर अलमारी में रख दिया करते और दूसरे दिन फिर उसी स्थान पर लगा दिया करते. हमारा गणतंत्र या स्वतंत्रता दिवस दूसरों की अपेक्षा एक-दो हफ्ते ज्यादा ही चलता. अगर उस वक्त तिरंगे को रात में फहराने की छूट होती तो निश्चित ही दूधिया रोशनी में हम उसे फहराते.

गणतंत्र दिवस समारोह में जाने की मेरी बचपन से दिली इच्छा रही, जिसको मैं स्कूल में होने वाले कार्यक्रमों से पूरी करता रहा. शायद उस वक्त मैं 9वीं क्लास में था. 15 अगस्त के दिन जब कॉलोनी के दोस्त सुबह-सुबह क्रिकेट खेलने में मशगूल थे, मैं स्कूल में होने वाले कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए तैयार हो रहा था, मेरे भाई ने लाख समझाया कि स्कूल में कुछ खास नहीं होगा. जाकर पछताना ही पड़ेगा, मगर मैंने उसके एक न सुनी और हम दोनों स्कूल पहुंच गए. हमारे स्कूल का नाम था राजा बलवंत सिंह इंटर कॉलेज, शायद इसीलिए स्कूल प्रशासन समझता था कि यहां आने वाला हर बच्चा किसी राजा की तरह ही योद्धा होगा. ग्राउड में हम सारे छात्रों को कतार में खड़ा कर दिया गया, सूरज देवता उस दिन बिल्कुल भी मेहरबान नहीं थे. सुबह से ही धूप अपने पूरे शबाब पर थी, हम कड़ी धूप में मुख्य अतिथि के इंतजार में तकरीबन 50-60 मिनट खड़े रहे. इसके बाद धूप के आगे छात्रों का धैर्य जवाब देने लगा, कुछ छात्र गिरने लगे, कुछ जानबूझकर जूते के फीते खोलते और फिर उन्हें बांधने के बहाने चंद मिनटों के लिए बैठ जाते. मेरा भाई उस वक्त मुझे क्रोध भरी निगाहों से देख रहा था, मैं बिना बोले ही उसके अल्फाज समझ सकता था. खैर, हमारे गिरने से पहले ही मुख्य अतिथि आए, झंडावंदन हुआ. लहराते झंडे को देखकर 60 मिनट तक खड़े रहने का दर्द पलभर में ही काफूर हो गया.

मुख्य अतिथि के हाथ से दो-दो लड्डू मिले जिसे खाते हुए हम स्कूल से बाहर निकल आए. उन दिनों राष्ट्रीय पर्व पर स्कूलों में विद्यार्थियों को दो-दो लड्डू दिए जाते थे. हिंदी मीडियम स्कूलों में तो यही आलम था, इंग्लिश मीडियम के बारे में कुछ कह नहीं सकता, हो सकता है वहां कुछ अलग होता हो. स्कूल से घर तक साइकिल चलाने की जिम्मेदारी मेरे भाई ने मुझे सौंपी. अब ये स्कूल लाने का दंड था या कुछ और, मैंने समझे बिना ही हामीं भर दी. क्योंकि मैं जानता था कि न चाहते हुए भी उसे मेरी वजह से यहां आना पड़ा और धूप में 60 मिनट खड़े होने की सजा झेलनी पड़ी. उस वक्त हमारे पास रेंजर साइकिल हुआ करती थी, दिखने में स्टाइलिश थी इसलिए हमने पहली नजर में ही उसे पसंद कर लिया था, मगर चौड़े टायरों की वजह से दो लोगों को बैठाकर उसे चलाना बड़ा परिश्रम वाला काम था. हम इसी साइकिल पर सवार होकर घर से 9 किलोमीटर दूर स्टेडियम भी जाया करते थे, उन दिनों बैडमिंटन खेलने का जुनून सवार था. कुछ ओपन टूर्नामेंट जीतने के बाद स्टेडियम में खेलकर आगे बढ़ने का उत्साह भी खूब था, इसलिए थकान कमजोर नहीं कर पाती थी. स्टेडियम में एंट्री के लिए हमें बहुत पापड़ बेलने पड़े. कोच हमें खिलाने को बिल्कुल तैयार नहीं था, ऐसा नहीं था कि हमारी उनसे कोई पुरानी दुश्मनी थी, बल्कि वहां तक पहुंचने के लिए किसी रसूख वाले व्यक्ति का सिफारिशी पत्र हमारे पास नहीं था. कोच न सही किस्मत ने हमारा साथ जरूर दिया, हमें कुछ सुपर सीनियर खिलाड़ियों का मैच दिखने का मौका मिला.

उस टीम के कप्तान मिस्टर भल्ला के खेल ने हमें बहुत प्रभावित किया, वहां बैठे लोगों के मुंह से उनके व्यवहार के बारे में भी काफी तारीफ सुनने को मिली. उसी वक्त हमने सोच लिया कि शायद मिस्टर भल्ला स्टेडियम में हमारी एंट्री करवा सकें. मैच के दूसरे दिन किसी तरह पता लगाकर हम उनके घर पहुंच गए, उस वक्त शाम के शायद 6 बज रहे होंगे. उन्होंने बड़े प्यार और सम्मान से हमें बैठाया हमारी बातें सुनी और कोच के नाम एक पत्र लिख हमारे हाथों में थमा दिया. हमने उन्हें धन्यवाद दिया, पैर छूकर उनका आशीर्वाद लिया और अगली शाम स्टेडियम पहुंच गए. कोच को सिफारिशी पत्र थमाया तो उसके मुंह से चाहते हुए भी ‘न’ नहीं निकल सकी. थोड़े ही वक्त में हमने आउटडोर और इंडोर के बीच के फर्क को समझते हुए अपने को उसके अनुसार ढाल लिया. मगर ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाए, क्योंकि कोच का सारा ध्यान महज उन खिलाड़ियों की प्रतिभा निखारने में रहता जिनके पीछे उनके पिताजी की करोड़ों की दौलत पड़ी हो. हमारी तरह कुछ और खिलाड़ी भी इसी पीड़ा से ग्रसित थे, बोर्ड की पढ़ाई और कोच के रुखे व्यवहार के चलते हमने स्टेडियम से नाता तोड़ लिया. खिलाड़ी बनने की तमन्ना कोच की वजह से पूरी नहीं हो पाई और सेना में जाने की ख्वाहिश पारिवारिक स्थिति के चलते परवान नहीं चढ़ सकी. उस दौर की परेशानियों को न तो कागज पर और न ही लफ्जों में बयां किया जा सकता है. बस इतना कह सकता हूं कि उन दिनों हर दिन एक जंग की तरह था, और निहत्थे ही उसमें उतरना होता. भले ही सेना में जाने की इच्छा अधूरी रह गई हो मगर देशभक्ति का जज्बा अब भी कायम है. ये देखकर बेहद अफसोस होता है कि आजकल के बच्चों में वो जोश दिखाई नहीं पड़ता. हर कोई 26 जनवरी और 15 अगस्त को सिर्फ छुट्टी के रूप में मनाना चाहता है. राष्ट्रीय पर्व के प्रति इस तरह का भाव आगे आने वाली पीढ़ी को कहाँ ले जायेगा, इस बारे में सोचने की ज़रूरत है.