भोपाल के बहाने भाजपा में फिर दवाब की सियासत का आगाज

भोपाल (आईएएनएस) : समाचार ऑनलाईन – मध्य प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में दवाब के जरिए भारतीय जनता पार्टी में कई टिकट बदलवाने में सफल रहे नेता एक बार फिर दवाब की राजनीति करने के लिए लामबंद हो चले हैं। इसकी शुरुआत भोपाल से हुई है। तमाम विरोधों के बावजूद एक साथ गोलबंद हुए इन नेताओं ने पार्टी हाईकमान को ही आंख दिखाना शुरू कर दिया है। साथ ही इशारों-इशारों में धमका ही दिया कि अगर उनकी मर्जी के मुताबिक उम्मीदवार नहीं बनाया तो पार्टी को हार का सामना करना पड़ सकता है।

भाजपा पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में सभी 10 सासंदों के टिकट काटने का फैसला पहले ही कर चुकी है और उम्मीदवारों की पहली सूची में छत्तीसगढ़ के 11 में से छह संसदीय क्षेत्रों के उम्मीदवारों के नामों का ऐलान कर दिया है। मध्य प्रदेश के एक भी उम्मीदवार का नाम पहली सूची में नहीं आया है। राज्य के 29 लोकसभा क्षेत्रों में से कई सीटों को लेकर खींचतान का दौर जारी है। भाजपा के पास 29 में से 26 सीटे हैं। पार्टी कई सांसदों को फिर उम्मीदवार न बनाने का मन बना चुकी है, उनमें भोपाल भी शामिल है।

भाजपा में सांसदों में बदलाव को लेकर चल रही चर्चाओं के बीच जगह-जगह नेता लामबंद हैं, मगर कोई भी खुलकर सामने नहीं आ रहा है। पार्टी का फैसला आने से पहले ही भोपाल में नेता लामबंद हो चले हैं। भोपाल से पार्टी दो नामों पर गंभीरता से विचार कर रही है, उनमें केंद्रीय मंत्री और ग्वालियर से सांसद नरेंद्र सिंह तोमर व प्रदेश महामंत्री विष्णु दत्त शर्मा प्रमुख हैं। इन नामों के सामने आते ही भाजपा के नेताओं में खलबली बढ़ गई और योजनाबद्ध तरीके से विरोध शुरू कर दिया है।

होली से ठीक एक दिन पहले भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर के आवास पर महापौर आलोक शर्मा, सांसद आलोक संजर, पूर्व मंत्री उमाशंकर गुप्ता जमा हुए और सभी ने एक स्वर में ऐलान कर दिया कि बाहरी प्रत्याशी बर्दाश्त नहीं होगा। चारों नेता उम्मीदवारी के दावेदार हैं। पार्टी के भीतर से ही सवाल उठ रहा है कि इन नेताओं को कैसे पता चला कि बाहरी व्यक्ति प्रत्याशी बनाया जा रहा है। आखिर वह कौन नेता है, जिसने पार्टी हाईकमान के संभावित फैसले नेताओं के कान में फूंक दिए हैं।

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक भारत शर्मा का कहना है कि राज्य के पिछले चुनावों पर नजर दौड़ाई जाए तो एक बात नजर आती है कि कांग्रेस में दवाब की राजनीति खूब होती थी, मगर अब यह रोग भाजपा को भी लग गया है। यह बात विधानसभा चुनाव में नजर आई थी और भोपाल के गोविंदपुरा से भाजपा को पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर की पुत्रवधू कृष्णा गौर को उम्मीदवार बनाना पड़ा था। भोपाल के बाद विरोध राज्य के कई अन्य हिस्सों में हुआ और टिकट बदले गए थे। कार्यकर्ता नाराज हुआ और परिणामस्वरूप पार्टी सत्ता से बाहर हो गई।

शर्मा ने कांग्रेस की तरह भाजपा में भी दवाब की राजनीति के बढ़ते क्रम का जिक्र करते हुए कहा कि राज्य के विधानसभा चुनाव में भाजपा कुछ नेताओं के कारण हारी थी, अब वही नेता एक बार फिर पर्दे के पीछे रहकर अपनी सियासी चालें चल रहे हैं, उनकी कोशिश है कि भाजपा को राज्य में पर्याप्त सफलता न मिले, जिससे उनका महत्व बना रहे और मौके-बेमौके वे पार्टी पर दवाब बनाने में सफल हों।

भोपाल संसदीय क्षेत्र के अब तक के चुनावों पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि यह संसदीय क्षेत्र भाजपा का गढ़ बन चुका है। भोपाल में वर्ष 1989 के बाद से हुए सभी आठ चुनावों में भाजपा के उम्मीदवारों को जीत मिली है। यहां से सुशील चंद्र वर्मा, उमा भारती, पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी और आलोक संजर चुने जा चुके हैं। वहीं इस संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के छह सांसद कांग्रेस के चुने गए उनमें पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा प्रमुख रहे हैं। इसी तरह वर्ष 1967 में जनसंघ और वर्ष 1977 के चुनाव में लोकदल से आरिफ बेग निर्वाचित हुए थे। भोपाल संसदीय क्षेत्र वर्तमान में भाजपा के लिए सुरक्षित सीटों में से है, लिहाजा पार्टी इस संसदीय क्षेत्र से नए चेहरे को मौका देने का मन बना रही है। जो दो नाम चर्चाओं में हैं, उनमें ग्वालियर के सांसद केंद्रीय मंत्री तोमर और शर्मा हैं।

सूत्रों के अनुसार, पार्टी अगर तोमर को ग्वालियर से ही चुनाव लड़ाती है और सीट बदलने को तैयार नहीं होती तो इस स्थिति में शर्मा का दावा मजबूत रहेगा। भोपाल से शर्मा का नाम आने पर कई नेताओं को अपना राजनीतिक भविष्य खतरे में नजर आने लगा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि शर्मा युवा हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में लंबे अरसे तक सक्रिय रहे, भाजपा के युवा कार्यकर्ताओं में पकड़ है, आरएसएस के साथ संगठन प्रमुख अमित शाह से नजदीकी है। इसी के चलते उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनाव और फिर झारखंड में प्रभारी बनाया गया था। पिछले विधानसभा चुनाव में राज्य के विंध्य क्षेत्र के प्रभारी थे और वहां पार्टी ने 30 में से 24 सीटों पर जीत दर्ज की थी।

पार्टी के राज्य के नेताओं के लामबंद होने और विरोध दर्ज कराने के मसले पर शर्मा ने आईएएनएस से कहा कि वे तो पार्टी के कार्यकर्ता हैं, पार्टी जो निर्देश देगी उसका पालन करेंगे। पार्टी ने जब, जो जिम्मेदारी सौंपी उसे अपने सामथ्र्य के अनुसार निभाया।

भाजपा से जुड़े नेता भोपाल के घटनाक्रम पर कुछ भी साफ तौर पर बोलने को तैयार नहीं हैं। हां, दबे स्वर में इतना जरूर कह रहे हैं कि पार्टी ने दवाब में कोई फैसला लिया तो विरोध की आग राज्य के अन्य हिस्सों तक जाएगी ही, जिसका असर चुनावी नतीजों पर भी होगा। साथ ही पार्टी हाईकमान भी कमजोर सिद्ध होगा। इसके अलावा युवाओं के नाम पर नेताओं के पुत्र, पुत्री और बहुओं को टिकट दिया गया तो पार्टी को वंशवाद के आरोपों का जवाब देना मुश्किल हो जाएगा।