विदेशनीति: मोदी ने वह कर दिखाया जो पिछली सरकारें नहीं कर सकीं

नीरज नैयर
नरेंद्र मोदी सरकार अपने चार साल पूरे करने वाली है, ऐसे में अब इस बात पर फिर मंथन शुरू हो गया है कि क्या भाजपा जनता से किए वादे पूरे करने में सफल रही? कांग्रेस सहित तमाम छोटे-बड़े दल जो भाजपा और मोदी की विचारधारा से सरोकार नहीं रखते, उनकी नजर में सरकार ने बड़ी-बड़ी बातों के अलावा कुछ खास नहीं किया, लेकिन जनता शायद विपक्ष की इस सोच से इत्तेफाक न रखे क्योंकि वो बखूबी जानती है कि विपक्ष के विरोध का तार्किक या अतार्किक आधार नहीं होता ये तो महज रस्मअदायगी भर है। सत्ता में रहते वक्त कांग्रेस को जो फैसले नीतिपूर्ण एवं तर्कसंगत नजर आते थे, वही अब जनविरोधी हो गए हैं फिर बात चाहे केंद्र की हो या राज्यों की। ये बात सही है कि महंगाई सहित कुछ चुनिंदा मुद्दों पर उम्मीदों के अनुरूप प्रगति नहीं हुई, तेल के बढ़ते दामों ने सरकार के प्रति नाराज़गी को बढ़ाया है, लेकिन इसे सरकार की असफलता के तौर पर कतई रेखांकित नहीं किया जा सकता।

साथ लेकर चलने की रणनीति 
इन चार सालों में मोदी सरकार ने तमाम ऐसे कार्य भी किए हैं जिन पर इससे पहले खास ध्यान नहीं दिया गया। मसलन, विदेशनीति कांग्रेसकाल में भारत के दूसरे देशों से रिश्ते कैसे थे? ये जगजाहिर है। निसंदेह अमेरिका से परमाणु करार एक बड़ी उपलब्धि था, मगर उसके प्रारूप से लेकर प्रावधानों तक में अमेरिकी वर्चस्व साफ तौर पर नजर आता था। यह कहना गलत नहीं होगा कि यूपीए सरकार की विदेशनीति पूरी तरह से अमेरिका के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई थी, इसी के चलते वामदलों का कांग्रेस से तलाक हुआ। इसके विपरीत मोदी सरकार बेहद संतुलित तरीके से सभी देशों को साथ लेकर चलने की रणनीति पर काम कर रही है।

बराबरी का सम्मान 
सबसे अच्छी बात तो ये है कि पाकिस्तान को लेकर जो दोहरा रवैया पिछली सरकार के वक्त नजर आता था, वो अब तक इस सरकार में देखने को नहीं मिला है। मोदी इस बात को अच्छे से समझते हैं कि किसी एक के ज्यादा करीब जाना रणनीतिक संतुलन के लिहाज से नुकसानदायक हो सकता है, इसलिए वे अमेरिका, चीन के साथ-साथ जापान, नेपाल, श्रीलंका और भूटान को बराबरी का सम्मान दे रहे हैं। बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली आधिकारिक यात्र भूटान थी, जो इस बात का सबसे बड़ा सबूत है। आमतौर पर प्रधानमंत्री अपने विदेश दौरों की शुरुआत किसी सशक्त देश से करते हैं। मोदी के अलावा सरकार की विदेशमंत्री सुषमा स्वराज भी रिश्तों में मिठास घोलने के लिए कई देशों की यात्रा कर चुकी हैं। इनमें कुछ तो ऐसे हैं, जिनके नाम भी यदा-कदा सुनने में आते हैं।

श्रीलंका से करीबी 
कांग्रेस के कार्यकाल में भारत और श्रीलंका के बीच जो दूरियां बढ़ी थीं, मौजूदा सरकार उसे भी पाटने में जुटी हुई है। सामरिक तौर पर श्रीलंका भी हमारे लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि नेपाल, लेकिन जब लिट्टे से संघर्ष के दौरान श्रीलंका को हमारे साथ की सबसे ज्यादा जरूरत थी, तब तमिलनाडु में अपनी राजनीति बचाने के लिए कांग्रेस ने हाथ खड़े कर दिए थे। चीन ने इसका फायदा उठाते हुए श्रीलंका को हथियारों की सप्लाई की़ इसके बाद से भारत के प्रति श्रीलंका का मिजाज तल्ख होता गया। ये तल्खी श्रीलंकाई सेना द्वारा भारतीय मछुआरों के साथ बर्बरता के रूप में कई बार सामने आ चुकी है। हालांकि अब इस तरह की घटनाएं कम होने लगी हैं। मोदी सरकार की विदेशनीति की एक अच्छी बात ये भी है कि वो रूस को फिर से करीब लाने के प्रयास कर रही है। मनमोहन सरकार ने अमेरिका से निकटता बढ़ाने की जद्दोजहद में रूस को नजरअंदाज़ कर दिया था। रूस और भारत के रिश्तों का इतिहास काफी सुनहरा रहा है। अंतरिक्ष से लेकर भारत की विभिन्न क्षेत्रों में कामयाब छलांग के पीछे रूस की भूमिका अहम थी। बावजूद इसके रूस को लेकर प्राथमिकताएं बदलती रहीं। गोर्शकोव सहित कई मुद्दों पर दोनों देशों के बीच बढ़ती दूरियां पूरी दुनिया को दिखाई दीं थीं। भारतीय राजनीति के इतिहास में मनमोहन सिंह अकेले ऐसे प्रधानमंत्री रहे जिनका मास्को दौरा महज 24 घंटों में समाप्त हो गया वो भी औपचारिकापूर्ण समझौतों के साथ।

विदेश यात्राओं पर सवाल क्यों?
प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी अब तक 54 से ज्यादा विदेश यात्राएं कर चुके हैं। इस बात को लेकर उनकी आलोचना भी हो रही है, कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों का तर्क है कि देश पर ध्यान देने के बजाए प्रधामनंत्री विदेशों में समय गुजार रहे हैं। लेकिन वो शायद भूल गए हैं कि घर की सुख-शांति तभी कायम रह सकती है जब आस-पड़ोस शांत है। अशांत पड़ोसी ताकतवर से ताकतवर व्यक्ति के समक्ष मुश्किलें खड़ी कर सकता है। चीन और पाकिस्तान के संदर्भ में हम ये देखते ही आ रहे हैं। पाकिस्तान को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर सबसे ज्यादा शह चीन से मिलती है, ऐसे में चीन को साधने की नरेंद्र मोदी की कोशिश की आलोचना नहीं, सराहना की जानी चाहिए। आमतौर पर भारतीय प्रधानमंत्री के चीन दौरे को सीमा विवाद के हल से जोड़कर देखा जाता है। यही वजह है कि जब इस मुद्दे पर कोई बात नहीं बनती तो दौरे को असफल करार दे दिया जाता है।  जबकि संभावनाएं तलाशने के दूसरे रास्ते भी हैं। मोदी के हालिया दौरे में सीमा विवाद पर चर्चा हुई, मगर सामाजिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान, व्यापार संतुलन पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया।  मोदी का मानना है कि आपसी संवाद का दायरा जितना विस्तृत होगा, दोनों मुल्कों के लोग एक-दूसरे के जितना करीब आएंगे सीमा विवाद जैसे जटिल मुद्दे सुलझने की संभावना उतनी ही अधिक रहेगी।

अलग-थलग पड़ा पाक 
मोदी सरकार दूर होते नेपाल को पास लाने की दिशा में भी उल्लेखनीय कार्य कर रही है। पिछली सरकार के कार्यकाल में भारत और नेपाल के बीच एक अदृश्य सीमा खिंच गई थी जिसका फायदा चीन उठा रहा था। आज पूरे विश्व में भारत का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है, भारतीय प्रधानमंत्री से मिलने, उनसे हाथ मिलाने की होड़ हर तरह देखी जा सकती है। केवल अमेरिका ही नहीं दुनिया का हर देश हमसे रिश्ते मजबूत करने की इच्छा रखता है। जो पाकिस्तान रह-रहकर हमारी मुश्किलें बढ़ा रहा था, आज वो अलग-थलग पड़ गया है। अंदरूनी तौर पर वो इतना टूट गया है कि उसकी फ़ौज भारत से बेहतर रिश्तों की हिमायत कर रही है।

कुल मिलाकर कहा जाए तो नरेंद्र मोदी सरकार के ये चार  साल विदेश नीति के लिहाज से काफी अच्छे गुज़रे हैं, जहां तक बात महंगाई या अन्य कुछ मुद्दों की है तो उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले दिनों में मोदी इस दिशा में भी गौर फरमाएंगे।