मोदी विरोध में अपने हाथ जला लेंगे केजरीवाल 

पुणे समाचार

‘राजनीति में न कोई स्थायी शत्रु होता है और न स्थायी मित्र’। खेमा बदलने वाले नेता अक्सर इन शब्दों के सहारे अपने फैसले का बचाव करते हैं। लेकिन कभी-कभी विपरीत विचारधाराओं का मिलन घातक भी हो सकता है। आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल इसी घातक राह पर आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के कैराना, फूलपुर और गोरखपुर में महागठबंधन की जीत के बाद केजरीवाल चाहते हैं कि लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी कांग्रेस के साथ मिलकर मोदी का मुकाबला करे। इसके लिए वह स्वयं माहौल निर्मित करने में लगे हैं। केजरीवाल ने हाल ही में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तारीफ करते हुए कहा था कि लोगों को उन जैसे शिक्षित प्रधानमंत्री की कमी खल रही है। अन्ना के आंदोलन के वक़्त मनमोहन सिंह पर हमला बोलने वालों में केजरीवाल सबसे आगे थे, भाजपा के सत्ता में आने तक या यूँ कहें कि कुछ दिन पहले तक केजरीवाल के लिए कांग्रेस भी बाकी दलों की तरह अछूत थी, क्योंकि उनकी नजर में वह भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती रही है। लेकिन बदलते समीकरणों के बीच अब केजरीवाल के सुर भी बदल गए हैं। वह इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं कि मौजूदा परिवेश में नरेंद्र मोदी और भाजपा को मात देना उनके अकेले के बस में नहीं है। उन्हें यह भी पता है कि यदि परिणाम पिछले चुनाव की तरह रहे तो 2019 में भी प्रत्यक्ष रूप से लोकसभा तक पहुँचने के उनके सपनों पर पानी फिर जाएगा।

2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के चलते दिल्ली की सभी सात सीटें भाजपा के खाते में गयी थीं, जबकि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का खाता भी नहीं खुल सका था। हालांकि 6 सीटों पर वोट प्रतिशत आप और कांग्रेस का ज्यादा था। दिल्ली की सभी सात सीटों पर भाजपा को 46.6% और कांग्रेस एवं आप को कुल 48.3% वोट मिले थे। लिहाजा केजरीवाल चाहते हैं कि यदि दोनों पार्टियां संयुक्त रूप से मैदान में उतरें तो भाजपा को रोका जा सकता है। लेकिन सवाल सबसे बड़ा यह उठता है कि क्या आम आदमी के वोटरों को यह गठबंधन मंज़ूर होगा? आप की नींव खलिस रूप से भाजपा और कांग्रेस जैसे दलों के विरोध पर टिकी हुई है, पार्टी का जन्म ही इस विरोध के चलते हुआ। आम आदमी को वोट देने वाला अन्य राजनीतिक पार्टियों पर विश्वास नहीं करता या फिर कह सकते हैं कि केजरीवाल पर उसे ज्यादा विश्वास है। ऐसे में जब केजरीवाल ‘आम’ दलों के साथ मिलकर सीटों की बंदरबांट करेंगे, तो उसका छिटककर दूर जाना स्वाभाविक है। मुख्यधारा की राजनीती में आने के बाद से ही अरविंद खुद और अपनी पार्टी को सबसे अलग बताते रहे हैं, वो यह साबित करने का प्रयास करते आते हैं कि भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों से केवल वही मुक्ति दिला सकते हैं, क्योंकि उनका दामन साफ़ है। लिहाजा मोदी विरोध में यदि वह कांग्रेस हाथ का साथ थामते हैं, तो उनके खुद के हाथ जलना तय है।

क्या कांग्रेस के लिए छोड़ी दो सीटें?
हालांकि, अभी इस दिशा में काफी काम बाकी है, लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ दिनों में बयानों का आदान-प्रदान हुआ है उससे संकेत तो मिल ही रहे हैं कि एक नए बेमेल गठबंधन की गाँठ बंधने जा रही है। लोकसभा चुनाव के मद्देनजर आप ने दिल्ली की सात सीटों में से पांच पर प्रभारी घोषित किए हैं। जबकि नई दिल्ली और पश्चिमी दिल्ली लोकसभा सीट के बारे में पार्टी खामोश है, कहा जा रहा है कि ये दो सीटें वह कांग्रेस के लिए छोड़ने वाली है।  आप ने पंकज गुप्ता को चांदनी चौक सीट से, दिलीप पांडे को उत्तर-पूर्वी दिल्ली सीट से, राघव चड्ढा को दक्षिण दिल्ली से, आतिशी मर्लिना को पूर्वी दिल्ली सीट से जबकि गुगन सिंह को उत्तर-पश्चिमी सीट से प्रभारी बनाया है।

विचारधारा अलग, लेकिन उद्देश्य एक
आप और कांग्रेस में अटकलबाजी की खबरें आप नेता दिलीप पांडे के ट्वीट से और गर्म हो गई हैं। दिलीप पांडे ने ट्वीट कर लिखा है कि जी! कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता ‘आम आदमी पार्टी’ के संपर्क में हैं और वे हरियाणा, दिल्ली और पंजाब में हमारा साथ और सहयोग चाहते हैं और दिल्ली में हमसे वे एक सीट मांग रहें हैं। हालांकि, दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन ने इस तरह की अटकलों को खारिज किया है। उनका कहना है कि जब दिल्ली के लोग लगातार केजरीवाल की सरकार को नकार रहे हैं, तो फिर ऐसे में कांग्रेस उन्हें बचाने के लिए क्यों आगे आए?  केजरीवाल, अन्ना हजारे और उनकी टीम की संघ ने ही मदद की थी, इसी के बलबूते मोदी सत्ता में काबिज हो पाए। मगर, पर्दे के पीछे की कहानी यह है कि काफी समय से दोनों दलों के बीच गठबंधन की बातें हो रही हैं, जो सीटों के बंटवारे की लड़ाई की वजह से सामने आ गई है। दोनों दलों की विचारधारा भले ही एक न हो, लेकिन दोनों का उद्देश्य नरेंद्र मोदी को केंद्र से हटाना है, इसलिए सीटों पर बात बनने की सम्भावना बरक़रार है।