रूठे रूस को मना लेंगे मोदी

नीरज नैयर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोमवार को रूस की एक दिवसीय यात्रा पर गए। वहां उन्होंने रुसी राष्ट्रपति ब्लादमिर पुतिन से मुलाकात की। ये मुलाकात अनौपचारिक थी, यानी इसमें किसी तरह के समझौतों को मूर्तरूप नहीं दिया जाना था। इससे कुछ वक़्त पहले मोदी ने चीनी राष्ट्रपति से भी अनौपचारिक मुलाकात की थी। आमतौर पर दो देशों में पूर्व निर्धारित एजेंडों पर बातचीत होती है, या किसी शिखर सम्मेलन के इतर दो राष्ट्र प्रमुख अहम् मुद्दों पर एक-दूसरे का मन टटोल लिया करते हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी का विशेष तौर पर अनौपचारिक मुलाकात में शामिल होने के लिए रूस जाना दर्शाता है कि वो एशिया में रूस की बदल रही भूमिका को लेकर चिंतित हैं। रूस और भारत के रिश्ते सदियों पुराने हैं, लेकिन पिछले कुछ वक़्त से अनगिनत आशंकाएं इस रिश्ते को घेरे हुए हैं. रूस का भारत के धुर विरोधी पाकिस्तान और चीन की ओर झुकाव बढ़ रहा है। हालांकि इस झुकाव के लिए प्रत्यक्ष तौर पर रूस ही कुसूरवार नहीं है, बल्कि ये भारत की पूर्व की नीतियों का प्रत्युत्तर है। मनमोहन काल में जिस तरह से भारत की विदेश नीति अमेरिका के इर्द-गिर्द घूमती रही, उसने रूस को भी अन्य संभावित विकल्पों पर ध्यान देने के लिए प्रेरित किया। भारत और रूस के संबंधों के इतिहास में मनमोहन सिंह की एकमात्र ऐसे भारतीय प्रधानमंत्री रहे, जिनका अधिकारिक मास्को दौरा महज 28 घंटों में समाप्त हो गया। उनकी यात्रा के बाद कोई संयुक्त विज्ञप्ति तक भी जारी नहीं की गई।

मनमोहन भूल गए थे…
इस बात में कोई दोराय नहीं कि द्वीपक्षीय संबंधों में नफे-नुकसान को तवज्जो दी जाती है, लेकिन किस ओर कितना झुकाव वाजिब रहेगा इसका आंकलन भी ज़रूरी है। भारत-अमेरिका परमाणु करार पर चर्चा करने से लेकर उसके अमल में आने तक पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार ने गणित के उस सिद्धांत को नज़रंदाज़ किया जो कहता है कि किसी एक ओर अत्यधिक झुकाव संबंधित वस्तु के टूटने की आशंका को बलबती कर देता है। आर्थिक, सामाजिक या सामरिक भारत अमेरिका से हर रिश्ता घनिष्ट करने की दिशा में आगे बढ़ता गया और आगे बढ़ने की इस जद्दोजहद में रूस काफी पीछे छूट गया। भारत और रूस के रिश्ते महज दो मुल्कों वाले रिश्ते नहीं थे, बल्कि उनमें पारिवारिक रिश्तों जैसी आत्मीयता थी. इसीलिए रूस को भारत का बड़ा भाई कहा जाता था। ये दोनों देश सोवियत संघ के विघटन के पूर्व से एक-दूसरे का सुख-दुःख बांटते आ रहे हैं। हालांकि दोनों के रिश्तों की असल शुरूआत 1954 में स्टालिन की मृत्यु के बाद हुई। उस वक्त रूस की आंतरिक राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में ऐसे निर्णायक मोड़ आए कि दोनों मुल्क एक-दूसरे के करीब आते चले गए।

सम्भावना से जन्मा रिश्ता
वैसे रूस ने शुरूआत में भारत की गुटनिरपेक्ष नीति का न सिर्फ विरोध किया बल्कि उसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पिछल्लगु श्वान, और अमेरिकी पूजीवादी दलाल जैसे नाम तक दे डाले थे। ये कहना गलत नहीं होगा कि भारत से करीबी के पीछे रूस का मकसद अमेरिका के बढ़ते वर्चस्व को रोकना था। अमेरिका उन दिनों बहुत तेजी से एशिया पर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश में था, और रूस भारत के जरिये उसकी पकड़ को कमजोर करना चाहता था। हालांकि सामरिक लाभ की संभावना पर जन्मा यह रिश्ता जल्द ही घनिष्ट मित्रता में तब्दील हो गया और इसके बाद भारत और रूस ने दोस्ती की राह पर चलते हुए कई आयाम स्थापित किए। रूस ने सुरक्षा परिषद में दावेदारी से लेकर आंतरिक सुरक्षा तक हर कदम पर भारत का साथ दिया। 1962 में जब भारत और चीन की जंग छिड़ी तो, रूस ने भारत का साथ दिया, जबकि वो चीन को नाराज़ करने के पक्ष में बिलकुल नहीं था।  दोनों देशों में सामरिक मुद्दे जैसे परमाणु ऊर्जा और वैज्ञानिक सहयोग को लेकर भी अच्छा तालमेल रहा. अंतरिक्ष तकनीक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी दोनों देशों के सहयोगात्मक रिश्ते रहे हैं।

अंतरिक्ष के क्षेत्र में योगदान
आज भारत अंतरिक्ष के क्षेत्र में जिस मुकाम पर है उसमें रूस का बहुत बड़ा योगदान है। 1975 से 1979 के दौरान रूस ने अंतरिक्ष अनुसंधान में खुद को स्थापित करने में भारत की हर संभव मदद की. रूसी सहायता के बल पर ही भारत अपना पहला उपग्रह छोड़ पाया और 1984 में पहली बार किसी हिंदुस्तानी को रूसी अंतरिक्ष यान सोयज पर सवार होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भिलाई और बोकारो इस्तपात सयंत्र स्थापति करने में रूस ने ही मदद की, इसके साथ ही मथुरा तेल शोध कारखाना, हरिद्घार में प्राणदायक एंटी बायोटिक औषधि निर्माणशाला आदि की स्थापना भी रूसी तकनीक के सहयोग से संभव हो सकी।

चौंकाने वाला रूप
यह बेहद अफ़सोस की बात है कि अमेरिका को साधने की चक्कर में भारत ने रूस जैसे सहयोगी को खुद से दूर जाने दिया। ये काफी हद तक पूर्ववर्ती सरकार की नीतियों का ही परिणाम है कि रूस हमारे दुश्मन पाकिस्तान और चीन से संबंध बेहतर बना रहा है। 2016 में रूस ने पाकिस्तान के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास किया था, गौर करने वाली बात ये है कि उसने भारत के ऐसा न करने के आग्रह को भी ठुकरा दिया था। रूस का सबसे ज्यादा चौंकाने वाला रूप उस वक़्त सामने आया जब उसने कश्मीर पर पाकिस्तान के रुख का समर्थन किया। दिसंबर 2017 में छह देशों के स्पीकरों का इस्लामाबाद में एक सम्मेलन हुआ था। सम्मेलन में एक कश्मीर पर पाकिस्तान द्वारा एक प्रस्ताव पास किया गया था। इस प्रस्ताव में कहा गया था कि वैश्विक और क्षेत्रीय शांति के लिए जम्मू-कश्मीर का भारत और पाकिस्तान के बीच संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के मुताबिक़ शांति ज़रूरी है। पाकिस्तान के इस प्रस्ताव को रूस समेत सभी देशों ने सहमति से पास किया था।  इन अन्य देशों में अफ़ग़ानिस्तान, चीन, ईरान और तुर्की के स्पीकर भी शामिल थे.

विदेश नीति की खासियत
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने रूस के साथ संबंधों को फिर से पहले जैसी ऊँचाइयों पर ले जाने की चुनौती है और जिस तरह से मास्को में पुतिन ने उनका स्वागत किया उसे देखकर लगता है कि भारत रूठे रूस को मानने में कामयाब हो जाएगा. मौजूदा समय में एशिया में जो समीकरण बन रहे हैं, उनमें भारत को रूस के साथ की ज़रूरत है, और मोदी इन ज़रूरतों को बेहतर ढंग से समझते हैं यही वजह है कि जहाँ एक तरफ वो अमेरिका को साथ लेकर चल रहे हैं, वहीं दूसरी तरह उन्होंने रूस को साथ लाने की कवायद भी शुरू कर दी है। मोदी सरकार की विदेश नीति की सबसे बड़ी खासियत यही है कि वह किसी एक देश से संबंध मधुर बनाने तक ही सीमित नहीं है. लिहाजा उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत और रूस के रिश्तों का स्वर्णिम काल जल्द वापस लौटकर आएगा।