एक फ़ोन कॉल से नीतीश कुमार ने दागे दो तीर 

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों में कई नए समीकरण देखने को मिल सकते हैं। संभव है कि भाजपा से रूठकर बैठे शिवसेना जैसे सहयोगी दल फिर एक छतरी के नीचे आ जाएँ, या जो दल अभी कमल थामे हुए हैं, वो विपक्षी एकता का हिस्सा बन जाएँ। जिस तरह के संकेत फ़िलहाल मिल रहे हैं, उससे एक बात तो साफ़ है कि 2019 का चुनाव भाजपा के लिए 2014 जितना आसान नहीं होगा। सीटों के बंटवारे को लेकर उसका कई दलों से मनमुटाव चल रहा है। नीतीश कुमार भी ज्यादा सीटों पर अड़े हुए हैं और अब उन्होंने भाजपा पर दबाव बनाने के लिए नए-नए पैंतरे आजमाना भी शुरू कर दिया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा लालू यादव को किये गए फ़ोन को इसी का हिस्सा माना जा सकता है। कुमार ने मंगलवार को मुंबई के एशियन हार्ट इंस्टिट्यूट में इलाज के लिए भर्ती लालू यादव से बात की। हालाँकि नीतीश और खुद लालू के बेटे एवं पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव इसे महज कर्टसी कॉल बताया, लेकिन इसके राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं।

लाज़मी है गुस्सा 
तेजस्वी ने ट्वीट किया है कि ये कुछ नहीं बल्कि देरी से की गई कर्टसी कॉल थी। उन्होंने तंज भरे अंदाज़ में कहा कि यह आश्चर्यजनक है कि नीतीश को लालू की बीमारी के बारे में 4 महीने बाद पता चला। वैसे तेजस्वी पहले भी साफ कर चुके हैं कि नीतीश के लिए महागठबंधन के दरवाजे पूरी तरह बंद हो चुके हैं। दरअसल, तेजस्वी का गुस्सा लाज़मी है, लेकिन बिहार की राजनीति में नीतीश को पूरी तरह अलग-थलग करके भी नहीं देखा जा सकता, इस बात का अहसास उन्हें भी है और यही अहसास दोनों दलों को साथ ला सकता है। नीतीश के नेतृत्व वाली जनता दल यू यानी जेडीयू ने पिछले साल जुलाई में महागठबंधन का साथ छोड़ भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। यहाँ से लालू और नीतीश के बीच फिर चौड़ी खाई खुद गई थी, दोनों सार्वजानिक मंच से एक दूसरे पर हमला बोला करते थे। लेकिन बीते कुछ वक़्त से नीतीश ने लालू को निशाना बनाना बंद कर दिया है।

नीतीश ने खेला दोहरा दांव  
नीतीश कुमार मंझे हुए नेता हैं, वो बखूबी जानते हैं कि कब किसके, कितना करीब आना है। दबाव की राजनीति के दांवपेंच भी उन्हें भलीभांति ज्ञात हैं। भाजपा साफ़ कर चुकी है कि वो सीट शेयरिंग में जेडीयू के फ़ॉर्मूले से संतुष्ट नहीं हैं, ऐसे में नीतीश लालू के करीब आने का दिखावा करके उस पर दबाव बनाना चाहते हैं। यदि दबाव बनता है तो अच्छा है, लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ तो वो इस दिखावटी करीबी को असलीयत में तब्दील कर सकते हैं।

विवाद की असली वजह
जेडीयू 17 सीटों की मांग कर रही है, लेकिन भाजपा कुल 40 सीटों में से 12 से अधिक देने को तैयार नहीं है। भाजपा चाहती है कि सीट शेयरिंग के लिए 2014 के लोकसभा चुनावों में राजनीतिक दलों के प्रदर्शनों को आधार बनाया जाए जबकि जेडीयू का कहना है कि सीट 2015 के विधानसभा चुनावों को आधार बनाकर बांटी जाएं। इसके अलावा, मोदी कैबिनेट में जेडीयू के लिए जगह नहीं होना भी दोनों दलों के बीच विवाद की एक और वजह है। जेडीयू केंद्र में रेलवे और रक्षा जैसे अहम मंत्रालयों की मांग कर रही है। दरअसल, वाजपेयी सरकार में सहयोगी दलों को अहम पोर्टफोलियो दिए गए थे, क्योंकि वाजपेयी सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखते थे, जबकी  मोदी सरकार ने सहयोगियों को छोटे मंत्रालय ही सौंपे हैं। अब देखने वाली बात यह होगी कि छोटे मंत्रालयों के साथ सहयोगी कब तक खुश रह पाते हैं और नीतीश कुमार की दबाव की राजनीति कितना असर दिखाती है।