समलैंगिकता: इस बेनाम रिश्ते के प्रति सोच भी बदलनी होगी

नीरज नैयर

समलैंगिकता को जायज माना जाए या नाजायज इसे लेकर एक बार फिर बहस शुरू हो गई है। इस बेनाम रिश्ते में खुशियां तलाशने वालों को अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार है। कोर्ट ने इस मुद्दे पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। दरअसल, 2009 में हाईकोर्ट ने समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध ठहराने वाले भारतीय दंड सहिंता की धारा 377 से इस बेनाम रिश्ते को बाहर रखने का आदेश सुनाया था। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गईं थीं, जिसके बाद 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए धारा-377 के तहत समलैंगिकता को अपराध माना। इस निर्णय को एक बार फिर चुनौती दी गई, जिस पर अब चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की पांच जजों की बेंच ने सुनवाई करके अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है।


हमारे समाज में होमोसेक्सुअलिटी यानी समलैंगिकता को गलत नजरिए से देखा जाता है, वैसे इसकी मुखालफत करने वालों को एकदम से गलत इसलिए भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जो कुछ भी मुख्यधारा से हटकर होता है उसे अपनाने में थोड़ा समय जरूर लगता है, और वैसे भी यह मामला कुछ ज्यादा ही संवेदनशील है। कुछ वक्त पहले तक सरकार ऐसे कृत्यों को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालने पर सहमत नहीं थी लेकिन अब वो ऐसा करने पर विचार कर रही है, किंतु इस राह में आने वाले बड़ी-बड़ी बाधाओं को पार करना आसान नहीं होगा। केंद्र सरकार ने यह फैसला पूरी तरह से सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ दिया है कि बालिगों का समलैंगिक संबंध बनाना अपराध है या नहीं?

हालांकि सरकार के भीतर ही कुछ लोगों का मानना है कि समान सेक्स के लोगों के बीच सेक्स संबंधों को कानूनी स्वीकृति देने से पहले भारतीय समाज के पारंपरिक मूल्यों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। काफी समय पहले इस्मत चुगताई की महिला समलैंगिकता (लैस्बियन संबंधों) पर लिखी कहानी ‘लिहाफ’ ने उर्दू कथा जगत के साथ भारतीय उपमहाद्वीप में तहलका मचा दिया था तब ब्रिटिश सरकार ने भी उन पर धारा 377 के तहत मुकदमा चलाया था। दुनिया के कई देशों में इस रिश्ते को कानूनी जामा पहनाया जा चुका है, और वहां कुछ हद तक बड़ी शान से वो जिंदगी बसर कर रहे हैं। लातिन अमेरिकी देशों में समलैंगिकों को इस तरह की मान्यता सबसे पहले अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में दी गई थी। ब्यूनस आयर्स में वर्ष 2003 में एक कानून बनाकर समलैंगिकों को सामुदायिक जीवन जीने का अधिकार दिया गया था। अमेरिका के कई हिस्सों में इसको अलग नजर से देखे जाने के बावजूद सैनफ्रांसिस्को के पश्चिमी तट पर रहने वाले लोगों ने समलैंगिकों को मुख्यधारा में शामिल किया हुआ है। ये जगह भारतीय मूल के समलैंगिकों के लिए भी एक मुख्य अड्डा बन गई है। 1986 में सैनफ्रांसिस्को खाड़ी-क्षेत्र में स्थापित दक्षिण एशियाई समलैंगिकों की संस्था ‘त्रिकोण’ की दिन-प्रतिदिन बढ़ती सक्रियता इस बात का प्रतीक है कि इस रिश्ते में बंधने वाले अपने फैसलों से खुश हैं और बात सिर्फ खुशी तक ही सीमित होनी चाहिए।

इस रिश्ते को सकरात्मक दृष्टि से देखना बिल्कुल आसान नहीं है, खुले विचारों वाली बड़ी-बड़ी बातें करने से इतर अगर हमारे आस-पास कुछ ऐसा हो रहा हो तो उसे स्वीकार करने में न जाने हमें कितना वक्त लग जाए, लेकिन सबसे अहम सवाल ये है कि क्या दो लोगों को फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष अपने हिसाब से, अपनी मर्जी से जीने का हक नहीं? किसी भी रिश्ते की शुरूआत इंसान उसमें खुशी ढूंढने के लिए करता है और अगर वो खुशी उसे अपने जैसे व्यक्ति के साथ रहकर मिलती है तो इसमें हर्ज ही क्या है। बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें लोग ताउम्र अकेले ही गुजार देते हैं या फिर लोक-लाज के डर से अनैतिक संबंधों के साथ गुमनामी के अंधेरे में खुद को छिपाए रहते हैं। यह स्थिति ऐसे रिश्तों को मान्यता देने से ज्यादा घातक है। जब तमाम विरोधों के बावजूद लिव-इन रिलेश्नशिप को वैध ठहराया जा सकता है, तो फिर समलैंगिकों को आजादी मिलने का विरोध कितना जायज है? कुछ साल पूर्व एक ऐसा भी मामला सामने आया था जिसमें दो लड़कियों के परिवार वालों ने उनके रिश्ते पर सहमति की मुहर लगाकर मिसाल पेश की थी। यह मामला पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले का था। ऐसे कई दूसरे भी मामले हैं, जिनमें या तो समान लिंग से प्रेम करने वाले या तो घर-परिवार से दूर चले जाते हैं या लोकलाज के डर से परिवारवाले ही उन्हें हमेशा के लिए खामोश कर देते हैं। समाज की भूमिका हमें आपस में जोड़ने की होनी चाहिए, लेकिन कई मौकों पर वो विभाजित करने का काम करता है।

समलैंगिकता को लेकर मतभेद होना अलग बात है, लेकिन इसे एकदम से नकार देना, समलैंगिकों के प्रति अपराधियों जैसा व्यवहार करना कितना सही है, इस पर विचार होना चाहिए? इस बेनाम रिश्ते की मुखालफत करने वाले जो तर्क पेश करते हैं, उनका कोई आधार नहीं। मसलन, पूर्व में एक याचिका में कहा गया था कि समलैंगिकता से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो जाएगा, क्योंकि जवान आपस में ऐसे संबंध बनाने लगेंगे। एक पूर्व सांसद ने इसे भारतीय संस्कृति के खिलाफ बताया था। तो इसाई और मुस्लिम धर्मावलंबियों ने भी अपनी-अपनी तरह से समलैंगिकता पर सवाल खड़े किए। सुप्रीम कोर्ट का जो भी फैसला होगा, वो सबको स्वीकार्य होगा, लेकिन इस मुद्दे को लेकर आमजन को भी अपनी सोच में परिवर्तन करना चाहिए। सीधे शब्दों में कहें तो कानून में बदलाव के साथ हमारी सोच में भी बदलाव की जरूरत है, ताकि समानता के अधिकार के लाभ से कोई वंचित न रहे।