पुनर्विचार याचिका के बाद भी हिंसा क्यों?

नई दिल्ली: अनुसूचित जाति-जनजाति (एससी-एसटी) कानून के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ सोमवार को बुलाया गया भारत बंद हिंसा के नाम रहा। मध्य प्रदेश में जहाँ 6 लोगों के मरने की खबर है, वहीं देश के अधिकांश राज्यों में भी प्रदर्शनकारियों ने तोड़फोड़ और आगजनी की। कहीं ट्रेनें रोकी गईं, तो सड़क पर जाम लगा दिया गया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को रोकने का प्रयास किया तो वो उससे भी जा भिड़े। इस बंद ने देश को आर्थिक रूप से भी काफी नुकसान पहुँचाया। अब सवाल उठता है कि जब केंद्र सरकार अदालत में पुनर्विचार याचिका दायर करने का ऐलान पहले ही कर चुकी थी, तो फिर इस बवाल का क्या मतलब था?

दबाव की राजनीति
दलित संगठन और कुछ अन्य राजनीतिक पार्टियाँ इस पूरे मसले पर जमकर राजनीति करना चाहते हैं। वो यह दिखाना चाहते हैं कि यदि उनकी बात नहीं सुनी गई तो अंजाम बहुत भयानक होंगे। कुछ ऐसा ही माहौल आरक्षण की मांग को लेकर जब तक निर्मित होता रहा है। इन संगठनों को कहीं न कहीं यह भी लगता है की यदि पुनर्विचार याचिका पर भी अदालत का वही रुख कायम रहा, तो शायद केंद्र हाथ खड़े न कर ले। इसलिए वह सरकार पर इस कदर दबाव बनाना चाहते हैं कि अदालत से नाकामी हाथ लगने के बाद सरकार कोई नई युक्ति सोचने पर मजबूर हो जाये।

प्रभावी नहीं रहती सरकारें
ऐसे आंदोलनों के पीछे प्रदर्शनकारियों की मंशा अदालतों पर भी दबाव निर्मित करना होता है। भले ही माननीय न्ययाधीश दबाव से ऊपर उठकर फैसले देते हैं, लेकिन इस तरह के मामलों में जहाँ बदलाव के आधार से एक बड़ा वर्ग ज्यादा प्रभावित न हो, वहां मानसिक तौर पर कुछ न कुछ दबाव निर्मित हो ही जाता है। अदालतें भी जानती हैं कि अक्सर हिंसक आंदोलनों-प्रदर्शनों को काबू में करने में सरकारें अधिक प्रभावी नहीं रहतीं।

कैसे हुए बेकाबू
सवाल यहाँ ये भी पूछा जाना चाहिए कि पंजाब, मध्यप्रदेश सहित वह तमाम राज्य सरकारें क्या कर रही थीं, जहाँ हिंसा हुई? भारत बंद का ऐलान अचानक तो नहीं किया गया था, सरकार के पास इतना समय था कि तैयारी की जा सके। तो फिर प्रदर्शनकारी बेकाबू कैसे हो गए, क्या यह सब किसी राजनीति का हिस्सा हैं?