अटल बिहारी वाजपेयी: लोगों पर नहीं दिलों पर राज किया

नीरज नैयर

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अब हमारे बीच नहीं रहे. वाजपेयी एक सर्वप्रिय कवि, वक्ता और समावेशी राजनीति के पर्याय थे. उनके जाने से एक ऐसी जगह खाली हो गई है, जिसकी भरपाई कभी नहीं की जा सकती. 2005 में भाजपा के रजत जयंती समारोह के दौरान उन्होंने चुनावी राजनीति से सन्यास लेने का ऐलान किया था. सांसद के रूप में 2009 में अपना अंतिम कार्यकाल पूरा करने के बाद उन्होंने कभी चुनाव नहीं लड़ा. 2007 में जब उपराष्ट्रपति चुनाव में वोट डालने के लिए वाजपेयी व्हील चेयर से पहुंचे थे, तो उनकी इस तस्वीर ने कई दिलों को विचलित कर दिया था. कहने को तो अटल बिहारी वाजपेयी एक ऐसी पार्टी का हिस्सा थे जहाँ हर कोई उन्हें प्यार और सम्मान की नज़रों से देखता था, लेकिन अपने जीवन के आखिरी समय में वो बिल्कुल अकेले हो गए थे. पार्टी और उसके नेताओं ने (कुछ चुनिंदा नेताओं को छोड़कर) उनसे एक अप्रत्यक्ष दूरी बना ली थी. वाजपेयी की ख़ैर खबर केवल तभी ली जाती जब उनके अस्पताल में भर्ती होने की खबर आती.

  

हर 25 दिसंबर यानी उनके जन्मदिन पर भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं द्वारा कैमरों के सामने जरूर उनकी नेतृत्व शैली को सराहा जाता, लेकिन लखनऊ पहुंचकर उनका हाल-चाल जानने की चेष्टा कोई नहीं करता. जब वाजपेयी अपने प्रभाव के रंग में थे, तब उन्हें जन्मदिवस की बधाई देने के लिए दिल्ली या लखनऊ में नेताओं का जमावड़ा लग जाया करता था. वाजपेयी उन नेताओं में शुमार थे जिन्होंने भाजपा को अपने दम पर बहुत दूर तक खींचा, हालांकि इसमें लालकृष्ण आडवाणी के योगदान को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. भारतीय राजनीति में वाजपेयी और आडवाणी को शोले के जय-वीरू के रूप में देखा जाता था. वाजपेयी जहां शांत और सौम्यता के साथ माहौल अपने पक्ष में करने को तवज्जो देते, वहीं आडवाणी गर्मजोशी के साथ हवा का रुख अपनी ओर मोड़ लेते. ये वाजपेयी के सबको साथ लेकर चलने के कौशल का ही परिणाम था कि सबसे ज्यादा दलों वाले राजग गठबंधन ने 1999 में केंद्र की सत्ता संभाली और सफलता पूर्वक अपना कार्यकाल पूरा किया.

वाजपेयी के अंदर एक करिज्मा था जो उन्हें दूसरों से अलग बनाता था. जिस तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस अपने साथ नहीं रख सकी वाजपेयी ने उसके साथ पूरे 5 साल सरकार चलाई. अटल बिहारी वाजपेयी एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने अपने स्वस्थ दिनों में कभी किसी के विचारों को खुद पर हावी नहीं होने दिया. वो वही करते रहे, जो उन्हें सही लगा. वे एक मात्र ऐसे शख्स थे जिन्होंने सर्वप्रथम संयुक्त राष्ट्र को हिंदी में संबोधित किया. वे ज्यादातर कामकाज और बोलचाल में हिंदी को ही तवज्जो देते थे. 4 अक्तूबर 1977 को संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन में वाजपेयी ने राष्ट्रभाषा का प्रयोग कर भारत सहित पूरे देश को कुछ देर के लिए सन्न कर दिया था. इससे पहले कोई भी भारतीय नेता ये साहस नहीं जुटा पाया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छोड़कर हमारे ज्यादातर नेता अंग्रेजी को ही संवाद की भाषा समझते हैं, हिंदी उनके लिए किसी अछूत की तरह है. जिसका इस्तेमाल बेहद विकट स्थिति में ही किया जाता है. वाजपेयी ऐसे वक्ता थे कि जब वो बोलना शुरू करते थे, तो उनके भाषण के आखिरी शब्द तक लोग अपनी कुर्सी से चिपके रहते थे. उनकी वाक्य शैली की तारीफ करते हुए पूर्व लोकसभा अध्यक्ष अनंतशयनम आयंगर ने एक बार कहा था कि लोकसभा में अंग्रेज़ी में हीरेन मुखर्जी और हिंदी में अटल बिहारी वाजपेयी से अच्छा वक्ता कोई नहीं है.

वाजपेयी का राजनीतिक जीवन काफी उथल-पुथल वाला रहा. शुरुआती जीवन में उन्हें खुद को राजनीति में स्थापित करने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ी. 16 मई 1996 को वो पहली बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन लोकसभा में बहुमत साबित न कर पाने के चलते उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा. वो महज 12 दिन ही पीएम की कुर्सीं संभाल पाए. किस्मत ने उन्हें 1998 में भी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया, मगर इस बार भी गठबंधन की मजबूरियों ने उन्हें ज्यादा दूर तक नहीं जाने दिया. एआईएडीएमके द्वारा गठबंधन से समर्थन वापस ले लेने के बाद उनकी सरकार गिर गई और फिर आम चुनाव हुए. 1999 में उनकी जनहितैषी छवि ने भाजपा और सहयोगी दलों के साथ सरकार बनाने की दहलीज पर लाकर खड़ा किया. इस बार सारी स्थितियों को भांपकर वाजपेयी प्रधानमंत्री बने. किस्मत से ये सरकार पूरे पांच साल चली.

माना जा रहा था कि राजग सरकार हिंदूवादी एजेंडे को आगे बढ़ाएगी, क्योंकि आडवाणी की रथ यात्रा से ऐसा ही माहौल पैदा किया था, लेकिन वाजपेयी ने बेहद उदारवादी रवैये से सरकार को चलाया. इन पांच सालों में उन्होंने खुद कोई ऐसा फैसला नहीं लिया जो सांप्रदायिक विवाद का कारण बने. महंगाई के जिस मार्चे पर पूर्ववर्ती यूपीए सरकार या मौजूदा मोदी सरकार लड़खड़ाती रहीं, उसे वाजपेयी सरकार ने बहुत अच्छे से संभाला था. उस जमाने में एकमात्र प्याज ही ऐसा खाद्य उत्पाद थी जिसकी कीमतें बेलगाम हो गई थीं. हालांकि वो भी बहुत थोड़े वक्त के लिए. वाजपेयी सरकार की सबसे बड़े उपलब्धि थी परमाणु परीक्षण. प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने अग्नि-2 और परमाणु परीक्षण कर देश की सुरक्षा के लिये साहसी कदम भी उठाये. 1998 में राजस्थान के पोखरण में भारत का द्वितीय परमाणु परीक्षण किया. इस परीक्षण की खबर से अमेरिका समेत कई देश सन्न रह गए थे. हालांकि इन परीक्षणों की वजह से भारत को कई तरह के प्रतिबंध झेलने पड़े, लेकिन देश की सुरक्षा के लिहाज से ये एक ऐतिहासिक कदम था. आज अगर चीन या अमेरिका हमारे सामने अदब से पेश आते हैं तो इसकी वजह कहीं न कहीं हमारा परमाणु संपन्न होना ही है.

असल मायनों में देखा जाए तो पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की शुरुआत वाजपेयी सरकार ने ही की थी. श्रीनगर-मुज्जफराबाद बस सेवा इस दिशा में सबसे बड़ा कदम थी. उस दौर के कड़वे रिश्तों के बावजूद मुशर्रफ को वार्ता के लिए आगरा बुलाना सरकार की उपलब्धियों में से एक कहा जा सकता है. हालांकि ये अलग बात है कि वो वार्ता पूरी तरह विफल रही और वाजपेयी को अलोचनाओं का सामना करना पड़ा. कारगिल युद्ध भी वाजपेयी सरकार की साफ-सुथरी छवि पर कभी न मिटने वाले दाग की तरह है, हालांकि फिर भी उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई. वाजपेयी की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब 2004 में राजग को लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा तो आगरा की जनता में इस बात का दुख था कि वो वाजपेयी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नहीं देख पाएंगे. खासकर महिलाओं ने तो आंसू भी बहाए, लोगों में भाजपा नहीं वाजपेयी के पीएम पद से हटने का मलाल था. कुल मिलाकर कहा जाए तो भारतीय राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी जैसी शख्सियत कोई नहीं है और न ही कभी होगी. देश उन्हें हमेशा याद करता रहेगा और उनकी यादें हमारे दिलों में हमेशा जीवित रहेंगी.