नई दिल्ली। समाचार एजेंसी
एट्रोसिटी कानून के तहत गिरफ्तारी से पहले मंजूरी लेने के सुप्रीम कोर्ट के प्रावधान को आख़िरकार ख़त्म कर दिया गया है। राज्यसभा में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) संशोधन विधेयक, 2018 सर्वसम्मति से पारित हो गया। विधेयक के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को पलट दिया गया है जिसमें इस अधिनियम के तहत आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान को समाप्त कर दिया गया था। लोकसभा में यह विधेयक पहले ही पारित हो गया था, ऐसे में अब राष्ट्रपति की सहमति के बाद यह कानून बन जाएगा।
विधयेक पर चर्चा का जवाब देते हुए केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावर चंद गहलोत ने कहा कि, नरेंद्र मोदी सरकार दलितों और कमजोर तबके के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध है और इस विधेयक को ‘किसी दबाव’ में नहीं लाया गया है। इस विधेयक के अंतर्गत जांच अधिकारी को एससी/एसटी अधिनियम के अंतर्गत नामजद आरोपी की गिरफ्तारी के लिए किसी अधिकारी के मंजूरी की जरूरत नहीं होगी। इसके अलावा, एससी/एसटी अधिनियम के अंतर्गत आरोपी के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करने के लिए प्रारंभिक जांच की जरूरत नहीं होगी।
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विधेयक में यह प्रावधान दिया गया है कि, इस प्रस्तावित अधिनियम के अंतर्गत अपराध करने वाले आरोपी को अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती। इसमें स्पष्ट किया गया है कि यह प्रावधान किसी भी अदालत के आदेश या निर्देश के बाद भी लागू होगा। गहलोत ने कहा कि, इस विधेयक में विशेष न्यायालयों के प्रावधानों को भी शामिल किया गया है और 14 राज्यों में पहले ही इस उद्देश्य के लिए 195 विशेष अदालतों का निर्माण किया जा चुका है। नए कानून के अंतर्गत, 60 दिनों के अंतर्गत जांच पूरी करने और आरोपपत्र दाखिल करने का प्रावधान है।
इसी साल 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के जज ए के गोयल और जज उदय उमेश ललित की पीठ ने एससी/एसटी एक्ट में बड़ा बदलाव करते हुए आदेश दिया था कि किसी आरोपी को दलितों पर अत्याचार के मामले में प्रारंभिक जांच के बिना गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। पहले केस दर्ज होने के बाद गिरफ्तारी का प्रावधान था। जबकि इस आदेश के मुताबिक, अगर किसी के खिलाफ एससी/एसटी उत्पीड़न का मामला दर्ज होता है, तो वो अग्रिम जमानत के लिए आवेदन कर सकेगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलितों ने सड़कों पर आंदोलन किया था, जिसमें कई लोगों की मौत हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ दो अप्रैल को देशभर में आंदोलन हुए थे। इस दौरान बड़े पैमाने पर हिंसक वारदातें भी हुई थी, जिसमें कई दलित आंदोलनकारियों को जान गंवानी पड़ी थी।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर विपक्षी दलों और भाजपा के कई दलित सांसदों ने कहा कि इससे दलितों का उत्पीड़न बढ़ेगा। आंदोलन के बाद मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की थी, लेकिन कोर्ट ने इसपर विचार करने से इनकार कर दिया था। इतना ही नहीं, कांग्रेस, बसपा, सपा, टीएमसी, आरजेडी समेत अन्य विपक्षी दलों और दलित चिंतकों ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा किया था। इनका कहना था कि सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने मजबूती से पक्ष नहीं रखा, जिसकी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला दिया और कानून कमजोर हुआ। विपक्षी दलों के साथ एनडीए के सहयोगी दलों लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी), आरपीआई और बीजेपी के कई दलित सांसदों ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर नाखुशी जताई थी और अपनी सरकार से कहा था कि वो अध्यादेश लाए।