सत्ता के नशे से उपजे अहंकार को दर्शाती हैं दिल्ली और उत्तराखंड की घटनाएं

राजनीति से जुड़ी दो ख़बरें सत्ता का अहंकार और विरोध में टूटती मर्यादाओं को दर्शाती हैं। एक खबर जहां उत्तराखंड से है, तो दूसरी देश की राजधानी दिल्ली से. दिनों ही ख़बरों में दो बातें कॉमन है। पहली, इनका ताल्लुख भाजपा नेताओं से है, दूसरी, राजनीतिक शुचिता और शालीनता को यहां तिलांजलि दी गई है। शुरुआत करते हैं उत्तराखंड से जहां राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने सत्ता के नशे में चूर होकर एक विधवा टीचर की फरियाद को न केवल अनसुना किया बल्कि उसे निलंबित करने के आदेश तक दे डाले। दरअसल, महिला ने मुख्यमंत्री दरबार में रावत से अपना ट्रांसफर न किये जाने की अपील की थी। महिला का कहना था कि “मैं 25 साल से काम कर रही हूं। मेरे पति की मौत हो गई है, मेरे बच्चों को कोई देखने वाला नहीं है। मैं अपने बच्चों को अकेला नहीं छोड़ सकती हूं। मैं नौकरी भी नहीं छोड़ सकती हूं, आपको मेरे साथ न्याय करना पड़ेगा।”

इस “पड़ेगा” शब्द ने मुख्यमंत्री के तेवर तल्ख़ कर दिए। उन्होंने सवाल किया कि ‘जब नौकरी शुरू की थी तो आपने क्या लिख कर दिया था’? इस पर टीचर ने जो उत्तर दिया, उसे सुनने के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत भड़क गए। उन्होंने ये तक सोचना मुनासिब नहीं समझा कि वो एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं। महिला ने कहा कि ‘मैंने यह भी लिखकर नहीं दिया था कि मैं बनवास भोगूंगी। आपका ही नारा है बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ। ये नहीं कि बनवास भेजना है।’

इसके बाद रावत के शब्द थे, ‘अध्यापिका हो, नौकरी करती हो। ठीक से बोलो, जरा सभ्यता सीखो यार’। इस पर भी जब महिला बोलती रही, तो मुख्यमंत्री का गुस्सा उनके शब्दों के रूप में सामने आने लगा। उन्होंने कहा कि अभी सस्पेंड कर दूंगा आपको, अभी सस्पेंड हो जाएगी। महिला का जवाब था कि आप क्या सस्पेंड करेंगे मैं खुद घर बैठी हूं’। आग-बबुला मुख्यमंत्री ने सुरक्षाकर्मियों को सख्त लहजे में कहा कि महिला को यहां से ले जाओ बाहर, इसे कस्टडी में लो, जिसके बाद पुलिस ने उसे हिरासत में ले लिया। हालांकि जाते-जाते महिला वो शब्द कह गई जिसके सहारे मुख्यमंत्री के आचरण को सत्ताधारी पार्टी और दिल्ली में बैठे उसके नेता वाजिब करार दे सकते हैं। महिला ने कहा “चोर उचक्के कहीं के।”

महिला की वाणी को गलत मान भी लिया जाए तो क्या राज्य के सर्वेसर्वा यानी मुख्यमंत्री से ऐसे आचरण की उम्मीद की जा सकती है? प्रजा के सुख-दुख का ख्याल रखना राजा का धर्म होता है, और यदि राजा ही अहंकारी बन जाए तो प्रजा किससे फ़रियाद लगाये? हालात और वक़्त की मार कभी-कभी हमें इतना असहाय बना देती है कि फिर न हमारे दिमाग में उपजने वाले विचारों पर हमारा नियंत्रण रहता है और न मुंह से निकलने वाले शब्दों पर, ऐसी स्थिति में लेवल वही व्यक्ति हमें समझ सकता है जो हमारे शब्दों के पीछे की पीड़ा को समझता है…लेकिन अफ़सोस कि एक मुख्यमंत्री के तौर पर त्रिवेंद्र सिंह रावत इस गुण को अपने अंदर अब तक विकसित नहीं कर सके हैं। वह शायद इस भान में हैं कि सत्ता के शिखर पर बैठकर उन्हें सबकुछ करने की आज़ादी है। निसंदेह उन्हें आज़ादी है, लेकिन इस आज़ादी की मियाद पांच साल है।

अब बात करते हैं दिल्ली की, जहां विरोध की मानसिकता में संबित पात्रा इतना नीचे उतर गए कि लाइव टीवी पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को जूते मारने की बात करने लगे। पात्रा को उस शायद इस बात का गुमान हो गया है कि वो फ़िलहाल देश की सबसे ताकतवर पार्टी के प्रवक्ता हैं। राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप आम हैं, लेकिन इस तरह के शब्दों का चयन दर्शाता है कि हम मानसिक दिवालियेपन की ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं। दरअसल, भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक का वीडियो सामने आने के बाद आजतक के कार्यक्रम ‘हल्ला बोल’ में इस मुद्दे पर चर्चा हो रही थी। इस दौरान कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी ने रक्षा बजट कम करने को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोला। उन्होंने कहा कि भाजपा वोट के लिए सर्जिकल स्ट्राइक का ढिंढोरा पीट रही है, जबकि कांग्रेस के शासनकाल में भी सर्जिकल स्ट्राइक हुई थीं, लेकिन सेना के नाम पर हमने राजनीति नहीं की।

इसके जवाब में भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा कि अगर सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत न दो, तो कांग्रेस सवाल उठाती है और जब सबूत दिया जाता है, तो कहती है कि राजनीतिक फायदे के लिए वीडियो जारी किया जा रहा है। इसके बाद पात्रा ने राहुल के बयानों को लेकर खूब हमला बोला। दोनों पार्टी के प्रवक्ताओं के बीच तीखी बहस शुरू हो गई और कांग्रेस के प्रवक्ता राजीव त्यागी जमीन पर धरने पर बैठ गए। इससे पात्रा भड़क गए और लाइव शो के दौरान ही कांग्रेस पार्टी हाय…हाय के नारे लगाने लगे, बात यहीं तक रहती तो ठीक था, लेकिन उन्होंने मर्यादाओं को तार-तार करते हुए कहा कि राहुल गांधी को जूते मारो. एक पार्टी प्रवक्ता से मुंह से निकले शब्द केवल उसके ही नहीं, संपूर्ण पार्टी के विचारों का भी प्रतिनिधत्व करते हैं। पात्रा कह सकते हैं कि जो हुआ, गुस्से में हुआ, लेकिन क्या आवेश में अपशब्दों को स्वीकार किया जा सकता है? सबसे ज्यादा हैरानी और ताज्ज़ुब की बात तो ये है कि भाजपा आलाकमान इस पर चुप्पी साधा हुआ है। क्या इसका अर्थ ये निकालना चाहिए कि वो भी पात्रा के शब्दों से इत्तेफाक रखता है? जब सैफुद्दीन सोज की सोच पर सवाल उठाया जा सकता है, तो रावत और पात्रा के कृत्यों पर भी सवाल उठाए जाने चाहिए…न केवल सवाल उठाये जाने चाहिए बल्कि उनसे जवाब भी मांगे जाने चाहिए…ताकि राजनीति और राजनेताओं को गिरते स्तर को और गिरने से रोकने का एक प्रयास किया जा सके।