फरेरा और गोंसालविस करते थे नए सदस्यों की भर्ती

सीपीआई माओवादी संगठन के सक्रिय सदस्य
– पुलिस ने कोर्ट में दी जानकारी
– 6 नवंबर तक पुलिस कस्टडी

समाचार ऑनलाइन | माओवादियों से संबंध होने के शक के चलते गिरफ्तार किए गए अरुण फरेरा और वर्नोन गोंसालविस यह पाबंदी लगाए गए सीपीआई माओवादी संगठन में नए सदस्यों की भरती किया करते थे। यह जानकारी शनिवार को पुलिस ने कोर्ट में पेश की। कोर्ट ने दोनों को 6 नवंबर तक पुलिस कस्टडी के लिए रवाना किया है।

विशेष न्यायाधीश किशोर वढणे ने फरेरा और गोंसालविस की जमानत को खारिज किया है। साथ ही उनकी नजरकैद अवधि भी शुक्रवार को समाप्त होने के बाद पुलिस ने शुक्रवार की शाम को फिर से गिरफ्तार किया। दोनों यह सीपीआई इस माओवादी संगठन के सक्रिय सभासद है, टीस और जेएनयू के विद्यार्थियों को संगठन में शामिल होने के लिए प्रवृत्त किया है। संगठन में उन्हें क्या जिम्मेदारी सौंपी गई है ? आरोपियों ने कुछ पैसा संगठन के उद्देश्य को साध्य करने के लिए इस्तेमाल किया है। यह पैसा उन्हें किसने दिया ? वह किस मार्ग से आया ? उसका किस स्थान में इस्तेमाल किया गया ? इसकी जांच करनी है। बड़ी प्लानिंग के साथ कोरेगांव भीमा घटना का नियोजन किया गया। आरोपी के पास से इसकी जांच करनी है। संगठन द्वारा किए गए गैरकानूनी कृत्यों की जानकारी और सबूत उनके पास से जब्त करना है।

गोंसालविस यह सुधीर ढवले के संपर्क में था। ऐसा जांच में स्पष्ट होता है। दोनों के बैंक खातों के व्यवहार में इस घटना के दौरान काफी बड़े पैमाने पर आर्थिक व्यवहार हुए हैं क्या ? और आरोपी का फेसबुक, ईमेल, सीडीआर की भी जांच करनी है। इसलिए 14 दिनों की पुलिस कस्टडी दी जाए, ऐसी मांग जिला सरकारी वकील उज्जवला पवार ने विशेष न्यायाधीश किशोर वडणे के पास की।

सरकारी वकील की युक्तिवाद को टक्कर देते हुए बचाव पक्ष के वकील एड. सिद्धार्थ पाटिल ने युक्तिवाद में कहा कि नजरकैद की अवधि समाप्त होने से पहले आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है। यह कोर्ट की अवमानना है। पुलिस ने जिन जिन कारणों के लिए पुलिस कस्टडी की मांग की है, इसकी जांच के लिए उनके पास दो महीनों का समय था। आरोपियों के बैंक खातों के बजाय बैंक के पास जांच करे। उनके मोबाइल, लैपटॉप, हार्डडिस्क, पेनड्राइव आदि वस्तू जब्त किए गए हैं। फेसबुक और ईमेल भी सील किए गए हैं। इसलिए कोई भी तकनीकी जांच बाकी नहीं है।

इस मामले में तत्कालीन ग्रामीण पुलिस अधीक्षक सुवेज हक द्वारा दिए गए प्रमाणपत्र में बताया गया है कि यलगार परिषद की वजह से भीमा कोरेगांव में दंगा नहीं हुआ था। दो गुटों में अचानक वाद विवाद हुआ था। इसलिए इस बारे में दाखिल किया गया अपराध गलत है, ऐसा साफ स्पष्ट होता है। इन सब बातों का विचार करते हुए पुलिस कस्टडी देने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा एड. पाटिल ने कोर्ट में पक्ष रखते हुए कहा।