सियासत यदि क्रिकेट है, तो मोदी सचिन तेंदुलकर, 2019 भी जीत लेंगे

नीरज नैयर

मौजूदा वक़्त में देश में दो सवाल सबसे अहम् हैं. पहला, क्या भाजपा अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में वापसी कर पाएगी? और दूसरा, क्या राहुल गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच पायेंगे? सिसायत क्रिकेट मैच की तरह है, जहां आखिरी गेंद तक चमत्कार की उम्मीद की जा सकती है. लिहाजा फ़िलहाल कुछ कहना मुश्किल है, लेकिन अधिकांश देशवासी इन सवालों के जवाब बखूबी जानते हैं. पिछले दो विधानसभा चुनावों की बात करें, तो उनके परिणाम जनता का मूड बयां करने के लिए काफी हैं. गुजरात में भाजपा तमाम दावों और आंकलनों के इतर जीत हासिल करने में कामयाब रही. इस बात में कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस ने सभी स्तरों पर उसे कड़ी टक्कर दी. राहुल गांधी के नेतृत्व में गुजरात कांग्रेस जोश से परिपूर्ण और लबरेज नज़र आई, लेकिन जीत का विकल्प नहीं होता. जीतने वाले के मामले में यह मान लिया जाता है कि उसने जो किया वही सही है और हारने वाले की हर बाजी गलत थी. फिर आंकड़े और विश्लेषण काम नहीं आते. इस तर्क को कर्नाटक से जोड़कर भी देखा जा सकता है, लेकिन वहां सत्ता समीकरण अलग हैं. गुजरात में भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई, जबकि कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर किसी तरह उसे सत्ता से दूर रखा. कर्नाटक का जनादेश भाजपा के लिए था, इतना ज़रूर है कि उसने राज्यपाल के सहारे सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने की जो जुगत लगाई उससे कहीं न कहीं उसकी छवि प्रभावित हुई. और कांग्रेस को नैतिकता की दुहाई देने का मौका मिल गया. वैसे राज्यपाल के सहारे सत्ता की चाबी हासिल करने का ये न तो एकमात्र मौका था और न ही होगा. भारतीय राजनीति में इसने एक अप्रत्याशित परंपरा का रूप ले लिया है. केंद्र में रहते वक़्त कांग्रेस खुद इस परंपरा का निर्वाहन कर चुकी है.

 इटली के विख्यात फिलॉसफर मैकियावेली ने किसी ज़माने में कहा था कि ‘राजनीति का नैतिकता से कोई रिश्ता नहीं’. ये वाक्य सोलह आने सच है. राजनीति आज नैतिकता विहीन है, जिसे जब, जहाँ जैसे मौका मिलता है, वो वैसे दांव खेल देता है. इसलिए ये कहना कि कोई एक पार्टी नैतिकता के विपरीत काम कर रही है, पूर्णता गलत है. 2019 में भाजपा और कांग्रेस के बीच मुकाबला केवल मुद्दों पर ही आधारित नहीं होगा, ये लड़ाई मोदी बनाम राहुल होगी. जहां दोनों के राजनीतिक गुण और अवगुण गिने जाएंगे. मोदी के पास जहां लंबा अनुभव और अपनी सरकार की उपलब्धियों की गाथा है, वहीं राहुल के पास जोश और उत्साह है. लेकिन अब तक की लड़ाई में जोश और उत्साह पर अनुभव भारी पड़ा है. गुजरात को बचाकर और कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरकर भाजपा ने एक बार फिर दिखा दिया है कि चुनाव कैसे लड़े जाते हैं और इस प्रदर्शन में नरेंद्र मोदी की भूमिका शब्दों की मोहताज नहीं है. इन राज्यों के परिणाम यह बताते हैं कि मोदी की लोकप्रियता बरक़रार है, चुनाव उन्हीं के नाम पर न केवल लड़े जा रहे हैं बल्कि जीते भी जा रहे हैं. मोदी लोगों को यह विश्वास दिलाने में सफल रहे हैं कि देश प्रगति पर चल रहा है और बदलाव अनावश्यक होगा.

2014 में सत्ता में आने के बाद से भाजपा मोदी के नेतृत्व में एक के बाद एक कई राज्य जीत चुकी है. सीधे शब्दों में कहें तो भाजपा उसी स्थिति में पहुँच गई है जहाँ कांग्रेस अपने स्वर्णकाल में थी और इस स्थिति का श्रेय मोदी को जाता है. 2019 में मोटे तौर पर कांग्रेस नोटबंदी, जीएसटी या कालेधन का मुद्दा उठा सकती है, इसके अलावा वो ज्यादा से ज्यादा पेट्रोल-डीजल पर भाजपा सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकती है, लेकिन क्या ये मुद्दे सत्ता में वापसी के लिए पर्याप्त हैं? शायद नहीं. यदि जनता इन मुद्दों से सरोकार रखती तो विधानसभा चुनावों में कमल खिलने के बजाये मुर्झा चुका होता. कहने को कहा जा सकता है कि विधानसभा चुनाव राज्यों से जुड़े मसलों पर लड़े जाते हैं, मगर कालेधन को छोड़ दिया जाए तो बाकी विषय प्रत्यक्ष रूप से राज्यों की सियासत को भी प्रभावित करते हैं. जनता के सामने कर्नाटक का उदाहरण हैं, जहां कांग्रेस की गठबंधन सरकार ने तेल के दाम बढ़ा दिए. राहुल और कांग्रेस को इस सवाल का जवाब देना होगा कि उनकी नज़र में जनता का हित महत्वपूर्ण है या सत्ता की आधी कुर्सी? क्योंकि यदि कर्नाटक में तेल के दाम बढ़ाना जायज है, तो फिर केंद्रीय स्तर पर होने वाली बढ़ोत्तरी का विरोध क्यों?

मोदी एक कुशल वक्ता हैं और उससे भी कुशल रणनीतिकार. वो इस बात को बखूबी समझते हैं कि एक ही जगह पर बार-बार चोट करने से क्या होता है. उन्होंने सीधे तौर पर लोगों के मन-मस्तिष्क को प्रभावित किया है. हर मुद्दे को देशहित से जोड़ने की उनकी कला ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि भाजपाकाल में जो कुछ हो रहा है वो देशहित है, और जो पिछली सरकार में हुआ वह देश विरोधी. फिर भले ही उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिणाम कुछ भी हो. इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि नोटबंदी पर्याप्त तैयारियों के अभाव में लिया गया फैसला था, जिसकी वजह से कुछ लोगों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी. लेकिन मोदी यह समझाने में सफल रहे कि बड़े-बड़े लक्ष्यों के लिए कीमत चुकानी पड़ती है. देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा, फिर चाहे वो अमीर हो या गरीब नोटबंदी को देशहित में लिया गया सबसे बड़ा कदम करार देता है. हालांकि, ऐसा हरगिज़ नहीं है कि बात केवल हवा-हवाई तक ही सीमित है. इन चार सालों में कई उल्लेखनीय गतिविधियाँ हुई हैं.

वो एक विषय जो किसी भी देश की तरक्की की आधारशिला होता, यानी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), उसमें भारत ने अच्छा प्रदर्शन किया है. पिछले चार साल के दौरान हमारी जीडीपी में औसतन 7 फीसदी से अधिक ग्रोथ देखने को मिली है. इतना ही नहीं कई मौकों पर जीडीपी ग्रोथ की रफ़्तार में भारत पड़ोसी चीन की पछाड़ता भी दिखाई दिया है. अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक सहित कई अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने भारत की अर्थव्यवस्था की चाल पर न केवल संतुष्टि दर्शाई, बल्कि इसमें तेज़ बढ़ोत्तरी की उम्मीद भी जाहिर की.

मोदी सरकार के दौर में भारतीय शेयर बाज़ार मजबूती की तरफ बढ़ता नज़र आया है. ये कहना गलत नहीं होगा कि मोदी शेयर बाज़ार का सबसे अहम् सेंटिमेंट बन गए हैं. 2014 में जब आम चुनावों के एक्जिट पोल सामने आये, तो सेंसेक्स में करीब 1500 अंकों की उछाल दर्ज की गई. कुछ मौकों को छोड़ दें तो बीते चार सालों में सेंसेक्स ने कई रिकॉर्ड स्थापित किये हैं. साल 2015 के जनवरी-फरवरी के दौरान सेंसेक्स 29,361 के जादुई आंकड़े के पार पहुंच गया. हालांकि इसके बाद नोटबंदी के चलते ज़रूर बाज़ार की चाल सुस्त पड़ी, मगर पिछले साल मई में सेंसेक्स फिर 31,000 के आंकड़े पर जा पहुंचा. फ़िलहाल सेंसेक्स 36 हजार का आंकड़ा छूने को बेताब है.

मोदीकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि है सरकार की बेदाग छवि. जबकि कांग्रेस सरकार में देश में 2008 में 2जी स्पेक्ट्रम, 2009 में सत्यम, 2010 में राष्ट्रमंडल खेल, 2012 के कोयला, चॉपर, टाटा ट्रक, आदर्श और न जाने कितने घोटालों की गूंज सुनाई देती रही. पिछले चार सालों में प्रत्यक्ष तौर पर एक भी भ्रष्ट्राचार का आरोप न लगना अपने आप में किसी उपलब्धि के समान है, और यही उपलब्धि 2019 में कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों पर भारी पड़ सकती है.

इसमें कोई दोराय नहीं है कि बेरोजगारी के आंकड़े और डॉलर के मुकाबले रुपए की कमजोरी को लेकर मोदी सरकार कुछ ख़ास नहीं कर सही. 2014 में बेरोजगारी का आंकड़ा 6 साल के सबसे निचले स्तर यानी 3.41 फीसदी पर था. 2015 में यह बढ़कर 3.49% हुआ, इसी तरह 2016 में 3.51 फीसदी, 2017 में 3.53 प्रतिशत पहुंचा और अनुमान है कि इस साल यह आंकड़ा 3.53 फीसदी के पार निकल जायेगा. हालांकि, जनता समझती है कि पलक झपकते ही सबकुछ बदला नहीं जा सकता, चुनावी जोश में जो वादे किये जाते हैं उन्हें पूरा होने में वक़्त लगता है और इस बात की संभावना काफी ज्यादा है कि ये वक़्त भाजपा को मिले.

वैसे, इतना ज़रूर तय है कि 2019 की महाभारत में भाजपा को काफी संघर्ष करना पड़ेगा. इसकी वजह कांग्रेस नहीं बल्कि सम्पूर्ण विपक्ष का एक छतरी के नीचे आना है. अभी तस्वीर स्पष्ट नहीं है, लेकिन जिस तरह से उपचुनाव या विधानसभा चुनाव में विपक्षी एकता नज़र आ रही है उससे इस बात की संभावना प्रबल है कि मोदी को टक्कर देने के लिए विरोधी शक्तियां एक हो जाएं. यदि महागठबंधन की प्रत्येक पार्टी अपना प्रदर्शन सुधारने में कामयाब रहती है, तो भाजपा को अकेले सत्ता तक पहुँचने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा. फिर भी यदि मौजूदा वक़्त को सामने रखकर देखें तो भाजपा 2019 में वापसी कर रही है. उसके पास ऐसे तमाम कारण हैं, जो उसकी दावेदारी को मजबूत करते हैं. उनमें से एक कारण यह भी है कि उसने लगभग सभी विपक्षी पार्टियों को हिंदू-विरोधी सिद्ध करने में सफलता हासिल कर ली है. अंत में बस इतना ही कहना उचित होगा कि सियासत यदि क्रिकेट है, तो मोदी यहाँ के सचिन तेंदुलकर, वे 2019 को भी भाजपा के पक्ष में मोड़ देंगे.