नाम बदलकर आखिर क्या हासिल होगा?

नीरज नैयर

शहर-स्थानों के नाम बदलने की परंपरा हमारे देश में काफी पुरानी है और योगी सरकार इस परंपरा को बखूबी निभा रही है। हाल ही में मुगल सराय जंक्शन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन किया गया। इसके पीछे तर्क था कि मुगल सराय हमें मुगलों के क्रूर चेहरों की याद दिलाता है। अब उत्तर प्रदेश सरकार इलाहबाद को प्रयागराज बनाना चाहती है, जिस तेज़ी से इस पर काम चल रहा है उससे आने वाले दिनों में इलाहाबादी, प्रयागवासी हो जाएंगे। योगी के साथ-साथ तमाम हिंदूवादी संगठन और हिंदूवादी सोच रखने वाले पुन: नामकरण को सही करार देते हैं। वैसे ये कोई पहला मौका नहीं है, केंद्र या राज्य की सत्ता में आने वालीं सरकारें कभी वोटबैंक की खातिर, तो कभी अपनी सोच को विस्तार देने के नाम पर ऐसा करती रहती हैं। ये कहा जा सकता है कि योगी सरकार के ताज़ा फैसले से उन राज्यों का मनोबल और ऊपर हो गया होगा जो इस कवायद का हिस्सा बनने का विचार मन में पाले हुए हैं।

मध्यप्रदेश फिर होगा सक्रिय
संभव है मध्यप्रदेश में अब पुन: हलचल शुरू हो जाए। कुछ वक़्त पहले शिवराज सरकार ने प्रदेश की राजधानी भोपाल को भोजपाल बनाने का प्रस्ताव पारित किया था। सरकार चाहती थी कि कभी भोपाल रियासत के राजा रहे भोजपाल के नाम पर शहर का नामकरण हो। उस दौर में राजा भोजपाल के प्रति राज्य सरकार का प्रेम कुछ ज्यादा ही उमड़ रहा था। बड़े तालाब के पास उनकी आदमकद प्रतिमा लगाने के साथ-साथ विज्ञापनों के माध्यम से लोगों को भोपाल के भोजपाल होने के तर्क समझाए गए, लेकिन उसे पर्याप्त समर्थन नहीं मिला। प्रदेश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा भोपाल का नाम बदलने के खिलाफ था और अब भी है। देखा जाए तो यह सही भी है, नाम बदलने से महज भोपाल की पहचान ही खत्म नहीं होगी बल्कि इस बेफिजूल की कवायद में सरकारी खजाने पर भी अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और उसकी भरपाई कहीं न कहीं जनता को ही करनी होगी। इस मामले में उत्तर प्रदेश हमेशा से ही प्रेरणास्त्रोत रहा है। यहां आने वाली सरकारों की दिलचस्पी राज्य के विकास से ज्यादा नाम बदलने में रही।

मायाकाल की वो यादें
खासकर मायावती के शासनकाल में तो धड़ाधड़ नाम बदले गए। संस्थानों से लेकर चौराहों तक, पार्कों से लेकर शहरों तक मायावती ने सबका पुन: नामकरण कर डाला। उन्होंने अमेठी को छत्रपति शाहूजी महाराज, कानपुर देहात को रामबाई और हाथरस को मायामाया नगर बनाया, आगरा विश्वविद्यालय को भीमराव अंबेडकर और, आगरा स्टेडियम को ऐकलव्य नाम दिया। इसके अलावा भी उन्होंने न जाने कितने बदलाव किए। मायावती की दिली इच्छा तो ताजनगरी यानी आगरा को भीमनगरी बनाने की थी, हालांकि विरोध के चलते वो इस पर अमल नहीं कर सकीं। नाम बदलने के अलावा माया का मूर्तिप्रेम भी दूसरे नेताओं के लिए प्रेरणास्त्रोत बना। यूपी में पक्की सड़कें, बिजली और पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं भले ही न हों मगर आपको हर चौराह पर एक प्रतिमा लगी जरूर मिल जाएगी। राजधानी लखनऊ में तो पूरा का पूरा पार्क ही बना दिया गया है। मायाकाल में अंबेडकर उद्यान की सुरक्षा ऐसे की जाती थी जैसे किसी वीआईपी के बंगले की। करोड़ों रुपए की लागत से तैयार इस उद्यान में लाखों रुपए की प्रतिमाएं जगह-जगह लगाई गई थीं, प्रतिमाओं के नैन-नक्श ऐसे हैं कि एक बारगी तो इनके नकल होने का अहसास ही नहीं होता। शायद यही वजह रही है कि इस राज्य में विकास की रफ्तार दूसरों से कम है और कानून व्यवस्था नाम की भी कोई चीज नहीं है।

योगी राज में भी वही हाल
वैसे योगी राज में भी प्रदेश की सूरत ख़ास बदली नहीं है। हत्या, डकैती, चोरी, छोड़छाड़, बलात्कार और मारपीट जैसी वारदातें हर राज्य में होती हैं, लेकिन यूपी में स्थिति बेहद चिंतनीय है। स्थानीय अखबारात अपराध की खबरों से ही पटे रहते हैं। दरअसल राजनेताओं को लगता है कि नाम बदलकर वो किसी धर्म समाज को अपनी तरफ आकर्षित कर सकते हैं। मगर हकीकत में ऐसा बिल्कुल नहीं है। आज की जनता इन सियासी हथकंड़ों को अच्छे से समझती है, उसे सिर्फ विकास चाहिए। वो उसी को वोट देना पसंद करती है जो उसके जीवन स्तर में सुधार लाने के प्रयास करता दिखाई दे।

ये भी तो हैं उदाहरण
अगर ऐसा न होता तो नीतीश कुमार, शिवराज सिंह और मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी पुन: सत्ता में नहीं आते। नीतीश कुमार ने लालू के बिहार की शक्ल बदलकर रख दी है। वो अपने राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर काम कर रहे हैं और जनता उन्हें सराह रही है। शिवराज सिंह ने अपने पहले कार्यकाल में प्रदेश के विकास का जो खाका तैयार किया उसी की बदौलत उन्हें जनता बार-बार मौका देती रही। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी तो नजीर बन गए थे, गोधरा कांड जैसे दाग के बावजूद उन्होंने सत्ता की हैट्रिक की। गुजरात की जनता ने वोट देते वक्त मोदी की व्यक्तिगत छवि से ज्यादा राज्य के लिए किए गए काम को ध्यान में रखा। मोदी ने हर तबके के विकास के लिए कार्य किया, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि भी हुई थी कि गुजरात में मुस्लिमों की स्थिति दूसरे राज्यों की तुलना में काफी बेहतर है। बात चाहे शिक्षा की हो, रोजगार की या आर्थिक सुधार की गुजरात के मुस्लिम मोदीकाल में सबसे आगे रहे। यदि मोदी विकास के बजाए महज नाम बदलकर मुसलमानों को लुभाने की कोशिश करते तो क्या कामयाब हो पाते? राजनेताओं को इस बारे में सोचने की जरूरत है।

जुबान आज भी अटकती है
जिन बड़े शहरों के नाम बदले गए वो अब भी पुराने नामों से ही जाने जाते हैं, लंबा अर्सा गुजरने के बाद भी लोग नए नाम को स्वीकार नही कर पाए हैं। बॉम्बे को मुंबई बनाया गया, लेकिन आज भी बॉम्बे ‘जीवित’ है और तो और हाईकोर्ट का नाम भी बॉम्बे हाईकोर्ट है न कि मुंबई हाईकोर्ट। बैंगलोर को बेंगलुरु कहने में जुबान अटकती है। सरकारी कामकाज छोड़ दिया जाए तो सामान्य बोलचाल में कर्नाटक की राजधानी आज भी बैंगलोर ही है। चेन्नई को जरूर थोड़ी बहुत मान्यता मिल गई है, मगर फिर भी मद्रास को लोग भूल नहीं पाए हैं। ऐसे नामकरण का क्या फायदा जो सिर्फ कागजों तक ही सीमित होकर रह जाए। नाम की राजनीति कर रहे नेताओं को समझना चाहिए कि अगर नाम बदलने से वोट मिला करते तो फिर शायद कोई हारता ही नहीं। क्योंकि नाम बदलना सत्ता में आने वाले दलों का शगल बन गया है।