असम: आखिर क्यों पड़ी नागरिकों की पहचान की ज़रूरत?

नई दिल्ली/समाचार ऑनलाइन

नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी) के दूसरे ड्राफ्ट में असम में रहने वाले 40 लाख लोगों को भारत का नागरिक नहीं माना गया है। हालांकि इन लोगों को अपनी नागरिकता साबित करने का एक मौका और मिलेगा। लेकिन जो दूसरे मौके में भी फेल रहते हैं उनके खिलाफ क्या कार्रवाई होगी, ये अभी देखना है। दरअसल, असम में लंबे समय से बांग्लादेशियों द्वारा घुसपैठ किए जाने की बातें कही जाती रहीं हैं, इसी के मद्देनजर नागरिकों की पहचान का काम किया जा रहा है। इतिहास में जाकर देखें तो इन दावों और उसकी असलियत काफी हद तक समझ आ जाती है। 1947 में बंटवारे के समय कुछ लोग असम से पूर्वी पाकिस्तान तो चले गए थे, लेकिन उनकी ज़मीन-जायदाद असम में थी और इसलिए उनका यहां आना-जाना जारी रहा। तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और बाद के बांग्लादेश से असम में लोगों के अवैध तरीके से आने का सिलसिला शुरू हो गया और उससे राज्य की आबादी का चेहरा बदलने लगा। इसके बाद असम में विदेशियों का मुद्दा तूल पकड़ने लगा। 1979 से 1985 के बीच छह सालों तक असम में एक आंदोलन चला।

15 अगस्त 1985 को ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) आदि संगठनों के साथ सरकार का समझौता हुआ, इसे असम समझौते के नाम से जाना जाता है। समझौते के तहत 25 मार्च 1971 के बाद असम आए लोगों की पहचान की जानी थी और उन्हें राज्य से बाहर किया जाना था। आसू ने 1979 में असम में अवैध तरीक़े से रह रहे लोगों की पहचान और उन्हें वापस भेजे जाने के लिए एक आंदोलन की शुरुआत की।

असम समझौते के बाद आंदोलन से जुड़े नेताओं ने असम गण परिषद नाम के राजनीतिक दल का गठन कर लिया, जिसने राज्य में दो बार सरकार बनाई। 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के समय साल 1951 के नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिजन को अपडेट करने का फ़ैसला किया गया। लेकिन विवाद के चलते मामला कोर्ट तक पहुंचा और फिर साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में आईएएस अधिकारी प्रतीक हजेला को एनआरसी अपडेट करने का काम सौंपा गया।