क्या इतनी क्रूरता हमें शोभा देती है?

नीरज नैयर

एक पत्रकार के जीवन में खाली समय का सबसे ज्यादा अभाव होता है। सुबह उठने के साथ ही ख़बरों को लेकर जो भागदौड़ शुरू होती है, वो रात को सोने तक चलती रहती है। काफी दिनों के बाद आज मुझे ख़बरों के इतर कुछ करने का वक़्त मिला, वो भी बिजली विभाग की वजह से। काफी देर तक जब बिजली नदारद रही तो मैं पुरानी फ़ाइलें खंगालने बैठ गया। हालांकि इन फ़ाइलों में भी ख़बरों की कतरनें थीं। पन्ने पलटते-पलटते मेरी नज़र कुछ ख़बरों पर गई, जो पशु क्रूरता से जुड़ी थीं। इनमें पुणे की भी कुछ ख़बरें थीं, जो बयां कर रही थीं कि मनुष्य के रूप में हमारी मानसिकता एवं कृत्य कितने घृणित होते जा रहे है। एक खबर में जिक्र था कि आवारा कुत्तों को एसिड से जला दिया गया, दूसरी कह रही थी कि उन्हें जहर देकर मौत की नींद सुला दिया गया। एक अन्य खबर में बताया गया था कि किस तरह एक कुत्ते को पहले पीटा गया फिर फांसी पर लटकाया गया। इस तरह की घटनाएँ देश के अधिकांश शहरों में तेज़ी से बढ़ रही हैं और अफ़सोस की बात यह है कि अपराधियों को उनके कीये की सजा भी नहीं मिलती। क्योंकि एक तो पुलिस पशुओं पर क्रूरता को गंभीर नहीं मानती और दूसरा पशु क्रूरता निवारण अधिनियम की धाराएँ भी घृणित मानसिकता वालों के दिल में खौफ़ पैदा नहीं करतीं। इन विचलित करने वालीं ख़बरों को देखकर मुझे पूर्व में लिखा गया अपना एक लेख याद आ गया, जो आज भी प्रासंगिक हैं। हालांकि मैं इस बात से अच्छे से वाकिफ हूँ कि मेरे लेख से लोगों की मानसिकता बदलने वाली नहीं है, क्योंकि कुत्सित मानसिकता रूपी विष आसानी से नहीं निकलता। फिर भी प्रयास करने में कुछ नहीं जाता। उम्मीद करता हूँ कि कम से कम उन लोगों को मेरा यह लेख पसंद आएगा, जिनके दिल में जानवरों के प्रति प्यार हो न हो, नफरत तो कतई नहीं है।

गाहे-बगाहे यह आवाज उठती रहती है कि आवारा कुत्तों को सिर्पुद-ए-खाक कर देना चाहिए, ठीक उसी तरह से जैसे मुर्गियों को बर्ड-फ्लू के डर से किया गया। कुत्ते रैबीज फैलाते हैं, नींद में खलल डालते हैं इसलिए उन्हें जीने का कोई हक नहीं। दलीलें तो यहां तक दी जाती हैं कि गली-मोहल्लों में घूमते आवारा कुत्तों से डर लगता है। अत: उन्हें सजा-ए-मौत दी जानी चाहिए पर ऐसी सजा की दरयाफ्त करने वालों ने कभी चश्मा उतारकर एक-एक निवाले को तरसते कुत्तों को गौर से देखा है। भुखमरी के शिकार बेचारे किसी कोने में चुपचाप पड़े रहते हैं। पास आओ तो भाग खड़े होते हैं। वो खुद इतने डरे होते हैं कि कभी-कभी तो अपने अक्स से भी घबरा जाते हैं। फिर भला ये निरीह किसी को क्या डराएंगे। जो खुद डरा हुआ हो वो किसी को डरा भी कैसे सकता है। जिस तरह इंसानों की करोड़ों की आबादी में कुछ लोगों के अपराधी बनने पर पूरी कौम को कठघरे में खड़ा नहीं किया, जाता उसी तरह किसी एक कुत्ते के भौंकने या पीछे भागने को संपूर्ण नस्ल के खात्मे का आधार कैसे समझा का सकता है?

प्यार का अथाह सागर
कुत्ते सदियों से ही वफादारी की परंपरा को निभाते आए हैं। वो बात अलग है कि मनुष्य जानकर भी अंजान बना रहता है। बेचारे लात खाते हैं, गाली खाते हैं मगर सोते उसी चौखट पर हैं जहां उन्हें कभी आसरा मिला था। मनुष्य भले ही विलासिता के समुंदर में मानवता की गठरी बहाकर क्रूर और निर्दयी बन बैठा हो मगर ये बेजुबान आज भी प्यार का अथाह सागर अपने छोटे से दिल में समाए बैठे हैं। प्यार के बदले प्यार कैसे किया जाता है, यह इनसे बेहतर भला कौन समझा सकता है। मनुष्य हमेशा से ही अपनी जरूरतों के मुताबिक रिश्तों की उधेड़बुन करता रहा है। जिन उंगलियों के सहारे वह चलना सीखता है वक्त निकल जाने के बाद उन्हें झटकने में एक पल की भी देर नहीं करता। जिन कंधों पर बैठकर वह दुनिया देखता है उन कंधों को कंधा देना भी अपना धर्म नहीं समझता। मनुष्य सिर्फ ढोंग करता है। लेकिन बेजुबान, वे बेचारे न तो ढोंग का मतलब जानते हैं और न ही छल-कपट उन्हें आता है। उन्हें आता है तो बस प्यार करना।

मनुष्य को ये हक़ किसने दिया?
लाख मारो, लाख सताओ फिर भी एक पुचकार पर उसी स्नेहभाव और आदर के साथ आपका सम्मान करेंगे जैसा हमेशा करते रहे हैं। रंग बदलने की प्रवृत्ति न तो उनमें कभी थी और न ही कभी होगी। यह काम तो मनुष्य का है। कुत्तों को इंसान का दोस्त समझा जाता है मगर चकाचौंध और ऐशोआराम से भरी मनुष्य की जिंदगी में इस बेजुबान दोस्त के लिए कोई जगह नहीं। गली-मोहल्लों में किसी तरह अपना गुजर-बसर करने वाले आवारा कुत्ते भी अब उसकी आंखों में खटकने लगे हैं। अभी कुछ वक्त पहले कुछ शहरों में जिस निर्दयता से आवारा कुत्तों को मौत के घाट उतारा गया, ऐसा काम तो सिर्फ इंसान ही कर सकता है। गले में रस्सी बांधकर बड़ी निर्ममता के साथ उन्हें घसीटकर ऐसे गाड़ी में फेंका गया, जैसे वो कोई कूड़े की गठरी हों। बेचारे चीखते रहे, चिल्लाते रहे, अपनी जिंदगी की भीख मांगते रहे, मगर किसी को दया नहीं आई। इन बेजुबानों का कसूर सिर्फ इतना था कि वो शहर के सौंदर्यीकरण में फिट नहीं बैठ रहे थे। मनुष्य शक्तिशाली है, उसे किसी भी बेजुबान को मारने का हक है, पर उसे ये हक किसने दिया? शायद भगवान ने तो नहीं।

सृष्टि की रचना और कुत्ते
सृष्टि की रचना के वक्त ईश्वर ने अन्न बांटने से पूर्व सबसे पहले कुत्तों को बुलाकर कहा, पृथ्वी का सारा अन्न मैं तुम्हें देता हूं, पर कुत्तों ने निवेदन किया कि इतने अन्न का हम क्या करेंगे? अन्न आप मनुष्य को दे दीजिए। वो खाने के बाद जो कुछ भी बचाएगा हम उससे गुजारा कर लेंगे। बदि्कस्मती से मनुष्य खाता तो खूब है मगर कुत्तों के लिए बचाता बिल्कुल नहीं। खाने की हर दुकान के सामने बेचारे टकटकी लगाए इस उम्मीद में बैठे रहते हैं कि शायद मनुष्य को उनके हाल पर दया आ जाए, पर अमूमन ऐसा होता नहीं। टिन के पिचके हुए डब्बे की माफिक पतला-सा पेट, आंखों में डर और खामोशी लिए बेचारे एक-एक दाने के लिए यहां-वहां भटकते रहते हैं। कुछ रुखा-सूखा मिल गया तो ठीक वरना भूखे ही सो जाते हैं, पर वफादारी और प्यार के जज्बे पर कभी भूख को हावी नहीं होने देते। ऐसे निरीह को बेतुकी दलीलों और शहर के सौंदर्यीकरण की खातिर मौत की नींद सुला देना क्या हम इंसानों को शोभा देता है?