नोकरी से रिटायर होते ही ‘बबन’ फिल्म से फिल्मजगत में पदार्पण : सीमा समर्थ

पिंपरी / पूने : 

नवी सांगवी के बैंक ऑफ महाराष्ट्र में शाखा व्यवस्थापक के रूप में अभी तक पूरी मेहनत और लगन से काम किया.  अपनी जिम्मेदारियों का पूरी ईमानदारी के साथ निभाया. लेकिन अनपेक्षित रूप से एक बड़ी जिम्मेदारी मैंने स्वीकारी. राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म ‘ख्वाडा’ के निर्देशक भाऊराव कर्हाडे की ‘बबन’ फिल्म में मुझे एक महत्वपूर्ण भूमिका मिली. एक चुनौती के रूप में मैंने इसे स्वीकार किया. अभिनय शुरू से ही मेरा जुनून रहा है. मैं 1981 से बैंकिंग क्षेत्र में कार्यरत हूं. आरंभ के दिनों में मैंने आकाशवाणी, दूरदर्शन में छोटे-बड़े काम किए थे. लेकिन फिल्मों में मैं पहली ही बार काम कर रही हूं. बैंकिंग क्षेत्र के करियर से रिटायर होने के दौरान ही भाऊराव में मुझ पर विश्वास जताते हुए मुझे अपने फिल्म में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अवसर दिया. इसलिए मैं उनकी और ‘बबन’ फिल्म की टीम की सदैव ऋणी रहुंगी. क्योंकि इन सभी के सकारात्मक प्रोत्साहन से ही मुझे इस क्षेत्र में काम करने का अवसर मिला है. यह प्रतिपादन बैंक शाखा व्यवस्थापक सीमा समर्थ ने किया.

सीमा ने बताया कि, आजतक मुंबई मैं बैंक में काम कर रही थी. लेकिन फिल्मी दुनिया से मेरा कभी कोई संपर्क नहीं रहा. अचानक मेरा तबादला पुणे के नवी सांगवी के बैंक ऑफ महाराष्ट्र में शाखा व्यवस्थापक के रूप में हुआ. दरम्यान, राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता भाऊराव कर्हाडे से मुलाकात की मेरी काफी इच्छा थी. बैंक के एक ग्राहक के रूप में उनका सत्कार करने के उद्देश्य से मैं उनकी कार्यालय में गई. लेकिन उस समय उनसे मेरी मुलाकात नहीं हो सकी. लेकिन दूसरे दिन वे स्वयं मुझसे मिलने के लिए आए. इसके बाद हमारी लगातार बातचीत होती रही. एक दिन उन्होंने खुद मुझे बताया कि मैं एक मराठी फिल्म बना रहा हूं. फिर उन्होंने पूछा, क्या आप मेरी फिल्म में काम करेंगी? साथ ही उन्होंने मुझे ऑडिशन के लिए भी बुलाया. मैंने एक पल का भी विलंब न करते हुए तुरंत ऑडिशन के लिए पहुंच गई. ऑडिशन काफी अच्छा हुआ और मेरा फिल्म के लिए सिलेक्शन भी हो गया. भाऊराव ने फिल्म में मेरी भूमिका के बारे में बताया और यहां से ‘बबन’ फिल्म में मेरा काम शुरू हुआ.

‘बबन’ फिल्म में गांव की एक दादी की भूमिका दी गई. इस कारण गांव की ग्रामीण भाषा आत्मसात करना थोड़ा मुश्किल हुआ. लेकिन भाऊराव ने मेरी भाषा सुधारने में मेरी काफी मदद की. विभिन्न प्रकार की किताबें पढ़ने का सुझाव उन्होंने मुझे दिया. ग्रामीण भाषा, ग्रामीण जीवन को समझने के लिए मैं शिरूर  के एक ग्रामीण परिवार में करीब एक महीना रही. वहां की औरतों का उठन-बैठना, उनका व्यवहार, उनकी भाषा, उनका साड़ी पहनने का तरीका, सिर का पल्लू संभालने का तरीका, खाना खाने का तरीका, बात करते हुए मुंह में आनेवाली सामान्य गालियां, खेत में जा कर प्याज की फसल को काटना, खुरपी, पशुओं के गोठे में जा कर काम करना आदि सभी कुछ मैंने उस एक महीने में अच्छी तरह से सीखा. मन में एक इच्छा थी, लगन थी, किसी भी स्थिति में मुझे मिली हुई भूमिका को पूरी शिद्दत के साथ निभाना. इससे पहले भाऊराव की ख्वाडा फिल्म मुझे बहुत ही अच्छी लगी थी और इससे मैं काफी प्रभावित भी थी.

निर्देशक भाऊराव का काम करने का तरीका बिल्कुल अलग है. वे सेट पर ही सीन के बारे में जानकारी देते है. उनका कहना है कि सीन की जानकारी पहले ही देने से कलाकार भूमिका की एक अलग ही प्रतीमा अपने मन में बनाते है और सेट पर पहुंचते है. लेकिन कई बार सेट का माहौल और कलाकार द्वारा मन में बनाई गई उस भूमिका में काफी अंतर होता है. इस कारण वह सीन उनका सशक्त नहीं बन पाता, जिनता उसे होना चाहिए. इसलिए मैं सेट पर ही कलाकार को सीन बताता हूं. मुझे क्या चाहिए, वह मैं जब कलाकार को सेट पर बताता हूं, तब वह लोकेशन और भूमिका के बीच सटिक तालमेल करते है और मुझे भी आसानी होती है. भाऊराव भूमिका समझाते हुए एक बात कहते है कि आप जैसे है, वैसा ही अभिनय करिए, सिर्फ भाषा के लहजे का ध्यान रखों.

मुझे ऐसा लगता है कि बबन फिल्म युवा लेखक और निर्देशक भाऊराव कर्हाडे के स्वयं के अनुभव के साथ ही युवाओं को एक अलग दिशा देनेवाला, वास्तविक, यश पाने के लिए बैचेन, दिन से प्रेम करनेवाला, जीवन में आनेवाले उतार-चढ़ाव के अनुभव से परिपूर्ण युवक की रंजक कथा है. सेट पर सभी मुझे बुढ़ियां ही कहते थे. वे सभी मुझे अभी भी इसी नाम से संबोधित करते है. मेरे जीवन में आया यह सीधा, सरल निर्देशक के साथ यात्रा का अनुभव काफी आनंददायक रहा. आगामी सप्ताह में ‘बबन’ फिल्म प्रदर्शित हो रही है. सभी को यह फिल्म थिएटर में जा कर देखने की मैं गुजारिश करती हूं.