पॉलिथीन पर प्रतिबंध कितना जायज?

नीरज नैयर

महाराष्ट्र सरकार ने पॉलिथीन बैग पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है। इस प्रतिबंध में प्लास्टिक की मोटाई के आधार को भी समाप्त कर दिया गया है। यानी अब ऐसा नहीं है कि केवल 50 माइक्रोन से कम मोटी प्लास्टिक की थैलियां इस्तेमाल करने या बनाने वाले दोषी होंगी, बल्कि सभी तरह के बैग इस दायरे में आ गए हैं। इसके अलावा प्लास्टिक के कप, प्लेट, चम्मच आदि पर भी प्रतिबंध लगाया गया है। बात केवल इतनी भर नहीं है, सरकार प्लास्टिक को पूर्णत: ख़त्म करने का मन बना चुकी है, जिसे अंग्रेजी में ब्लैंकेट बैन कहा जाता है। सरकार की योजना है कि पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक की सामग्री, बैनर, झंडे, फ्लेक्स बोर्ड, प्लास्टिक शीट, पुलिस बैरिकेड और डस्टबिन आदि भी बैन कर दिए जाएं। एक अनुमान के मुताबिक यदि सरकार इस दिशा में आगे बढ़ती है, तो करीब 50 हजार लघु और मंझोली व्यावसायिक इकाइयाँ को ताला लगाना पड़ेगा, यानी लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ जाएगा। ऐसे वक़्त में जब बेरोजगारी पहले ही से मुंह फाड़े खड़ी है, यह निर्णय कोड़ में खाज की तरह होगा।

बहरहाल पॉलिथीन बैग पर प्रतिबंध से पर्यावरणविद खुश हैं। इस क्षेत्र में काम करनी वाली संस्थाओं को सरकार के कदम में अपनी जीत नज़र आ रही है। और कुछ हद तक यह ख़ुशी जायज भी है। प्लास्टिक ने इंसान से लेकर पशुओं तक सबको प्रभावित किया है। प्लास्टिक की थैलियों को खाने से हर साल अनगिनत पशुओं की मौत होती है और मानव स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। हिमालय की बर्फ से ढकीं चोटियां भी पर्वतरोहियों द्वारा छोड़े गये मलबों से पट रही हैं। विदेशी नदियाँ भी भारतीयों द्वारा आस्था के नाम पर फेंके जा रहे प्लास्टिक बैग्स से त्रस्त है तो फिर देश की नदियों के बारे में क्या कहना। यमुना ने तो दमतोड़ ही दिया और बाकि कुछ-एक दम तोड़ने के कगार पर हैं, पुणे की मुला-मुठा नदियों की स्थिति जगजाहिर है। लेकिन क्या महज प्रतिबंध से हालात बदले जा सकते हैं? यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए। हमारे देश में किसी भी समस्या से निपटने के लिए प्रतिबंध पहले लगाया जाता है, उसके विकल्प बाद में ढूंढे जाते हैं।

जरा इस पर भी गौर करें
प्लास्टिक पर पूर्णत: बैन की बात सही हो सकती है, लेकिन हमें इसके दूसरे पहलु पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। प्लास्टिक किसी भी अन्य विकल्प जैसे धातु, कांच या कागज आदि की तुलना में कहीं ज्यादा मुफीद है। आज साबुन, तेल,दूध आदि वस्तुओं की प्लास्टिक पैकिंग की बदौलत ही इन्हें लाना-ले-जाना इतना आसान हो पाया है। प्लास्टिक पैकिंग कार्बन डाई आक्साइड और ऑक्सीजन के अनुपात को संतुलित रखती है जिसकी वजह से लंबा सफर तय करने के बाद भी खाने-पीने की वस्तुएं ताजी और पौष्टिक बनी रहती हैं। किसी अन्य पैकिंग के साथ ऐसा मुमकिन नहीं हो सकता। इसके साथ ही वाहन उद्योग, हवाई जहाज, नौका, खेल, सिंचाई, खेती और चिकित्सा के उपकरण आदि जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिक का ही बोलबाला है। भवन निर्माण से लेकर साज-सज्जा तक प्लास्टिक का कोई सानी नहीं है।

बैन से नुकसान ज्यादा
कई साल पहले इंडियन पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री ने एक शोध किया था। जिसमें यह दर्शाया गया था कि कांच की बोतलों के स्थान पर प्लास्टिक की बोतल के प्रयोग से 4 हजार मेगावाट बिजली की बचत हुई। जैसा की पर्यावरणवादी दलीलें देते रहे हैं, अगर प्लास्टिक पर पूर्णरूप से प्रतिबंध लगा दिया जाए तो इसका सबसे विपरीत प्रभाव पर्यावरण पर ही पड़ेगा। पैकेजिंग उद्योग में लगभग 52 फीसदी इस्तेमाल प्लास्टिक का ही होता है। ऐसे में प्लास्टिक के बजाए अगर कागज का प्रयोग किया जाने लगे तो दस साल में बढ़े हुए तकरीबन 2 से 3 करोड़ पेड़ों को काटना होगा। यानी पर्यावरण असंतुलन का ख़तरा हमेशा बना रहेगा। वृक्ष न सिर्फ तापमान को नियंत्रित रखते हैं बल्कि वातावरण को स्वच्छ बनाने में भी अहम् किरदार निभाते हैं। पेड़ों द्वारा अधिक मात्रा में कार्बनडाई आक्साइड के अवशोषण और नमी बढ़ाने से वातावरण में शीतलता आती है। अब ऐसे में वृक्षों को काटने का परिणाम कितना भयानक होगा इसका अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है। साथ ही कागज की पैकिंग प्लास्टिक के मुकाबले कई गुना महंगी साबित होगी और इसमें खाद्य पदार्थों के सड़ने आदि का खतरा भी बढ़ जाएगा। ऐसे ही जूट की जगह प्लास्टिक के बोरों के उपयोग से 12000 करोड रुपए की बचत होती है।

बैन से नुकसान ज्यादा

रिसाइकिलिंग पर जोर क्यों नहीं?
सवाल प्लास्टिक या इसके इस्तेमाल को खत्म करने का नहीं बल्कि इसके वाजिब प्रयोग का है। यह  बात सही है कि प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग से इसके कचरे में वृद्धि हुई है और इसे जलाकर ही नष्ट किया जला सकता है पर अगर ऐसा किया जाता है तो यह पर्यावरण के लिए घातक साबित होगा।  ऐसे में इस समस्या का केवल एक ही समाधन है, रिसाइकिलिंग।  कुछ सालों पूर्व पर्यावरण मंत्रालय ने प्लास्टिक के कचरे को ठिकाने लगाने के उपाए सुझाने के लिए एक समिति घटित की थी जिसने अपने रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया था कि प्लास्टिक की मोटाई 100 माइक्रोन तय की जानी चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा प्लास्टिक को रिसाइकिलिंग किया जा सके।

रिसाइकिलिंग पर जोर क्यों नहीं?

तय को निर्माता की ज़िम्मेदारी
वैसे भी भारत में सालाना प्रति व्यक्ति प्लास्टिक उपयोग 9.7 किलो है, जो विश्व औसत से खासा कम है. एक रिपोर्ट बताती है कि 2013 में एक अमेरिकन औसतन 109 किलोग्राम और चीनी 45 किलोग्राम प्लास्टिक का उपभोग कर रहा था। इसलिए ज्यादा चिंता की बात नहीं। वैसे सही मायने में देखा जाए तो इस समस्या के विस्तार का सबसे प्रमुख और अहम् कारण हमारी सरकार का ढुलमुल रवैया है पर्यावरणवादी भी मानते हैं कि सरकार को विदेशों से सबक लेना चाहिए, जहां निर्माता को ही उसके उत्पाद के तमाम पहलुओं के लिए जिम्मेदार माना जाता है। इसे निर्माता की जिम्मेदारी नाम दिया गया है. उत्पाद के कचरे को वापस लेकर रिसाइकिलिंग करने तक की पूरी जिम्मेदारी निर्माता की ही होती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल उत्पादित प्लास्टिक में से 45 फीसदी कचरा बन जाती है और महज 45 फीसदी ही रिसाइकिल हो पाती है। मतलब साफ है, हमारे देश में रिसाइकिलिंग का ग्राफ काफी नीचे है। प्लास्टिक को अगर अधिक से अधिक रिसाइकिलिंग योग्य बनाया जाए तो कचरे की समस्या अपने आप ही समाप्त हो जाएगी।

बेजा इस्तेमाल ज़रूरी
इसके साथ-साथ प्लास्टिक के बेजा उपयोग को लेकर नियम और कायदों को भी सख्त बनाने की जरूरत है। हमारे देश में पर्यटन स्थलों पर आने वाले सैलानी अपनी मनमर्जी के मुताबिक प्लास्टिक बैग्स को यहां-वहां फैंक जाते हैं। इससे न केवल उस क्षेत्र की खूबसूरती खराब होती है बल्कि उसका खामियाजा पर्यावरण को उठाना पड़ता है। वर्ष 2003 में हिमाचल सरकार ने भारत के पहले राज्य के रूप में इस दिशा में अनूठी पहल की थी। राज्य सरकार ने ऐसा कानून बनाया था जिसके तहत पॉलिथिन बैग का प्रयोग करते पाए जाने पर सात साल की कैद या एक लाख रुपए जुर्माने का प्रावधान था। ठीक ऐसे ही दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने पर्यटन क्षेत्रों में प्लास्टिक बैगों के उपयोग पर दस साल की सजा और आयरलैंड सरकार ने प्लास्टिक बैगों पर टैक्स लगाकर इसके प्रयोग को काबू में किया था। प्लास्टिक में भले ही कितनी खामियां क्यों न हो मगर इसकी उपयोगिता से आंखें नहीं मूंदी जा सकती। लिहाजा यह बेहद ज़रूरी है कि सरकार प्रतिबंध लगाने से पहले इसके विकल्पों पर विचार करे।