महज संबोधनों से नहीं सुधर सकती देश की सेहत

कल यानी 15 अगस्त को हम अपना 72वां स्वतंत्रता दिवस मानाने जा रहे हैं. परंपरा के अनुसार, प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करेंगे और देश में नई ऊर्जा के संचार की ज़रूरत को दर्शाएंगे. हर साल राष्ट्र के नाम संबोधन में नया केवल इतना ही होता है कि उसमें हाल-फिलहाल की कुछ घटनाओं का जिक्र कर दिया जाता है. इन संबोधनों से जनता की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता, वो जैसी कल थी आज भी वैसी है और कल भी वैसी ही रहेगी. इस बार भी लाल किले की प्राचीर से बहुत कुछ ऐसा कहा जाएगा, जिसे हम बचपन से सुनते आ रहे हैं और शायद कुछ एक को तो मुंह जुबानी याद भी हो गई होंगी. वैसे 15 अगस्त या 26 जनवरी को कही जाने वाली बातें इतनी भी कठिन और नई नहीं होतीं कि उन्हें याद न रखा जा सके. स्वतंत्रता के कुछ सालों बाद से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले चेहरे भले ही बदलते रहे, मगर बातों का प्रवाह अब भी यथावत ही है. देश का विकास करना, गरीबी को जड़ से मिटाना, भ्रष्टाचार को खत्म करना, आतंकवाद का मुकाबला करना, आदि, कुछ ऐसी बाते हैं जो लाल किले से हर साल बोली जाती हैं लेकिन इनमें से कितनों पर अमल हो पाता है ये हम सब जानते हैं. राष्ट्र के नाम संबोधन की आज के वक्त में प्रसांगिकता क्या है, इस पर जरा गौर करने की जरूरत है. क्या यह महज रस्म अदायगी बनकर नहीं रह गया है? पूरे देश की 132 करोड़ की आबादी में ऐसे कितने लोग हैं जो टीवी सेट पर नजर गड़ाए प्रधानमंत्री के कथन को ध्यानपूवर्क सुनते हैं, शायद इनकी संख्या हजारों में भी न हो, आप अपने आस-पास और खुद अपने पर ही अगर नजर दौड़ाएं तो इस बात का अहसास हो जाएगा.

लोग भी अब समझ गए हैं कि देश और जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले सिर्फ चार-पांच रटी -रटाई लाइनों से ज्यादा कुछ नहीं बोलने वाले और यदि इससे हटकर कुछ बोलते भी हैं तो वो कभी हकीकत में नहीं बदलने वाला. तो फिर क्यों वह उनकी कथनी पर वक्त बर्बाद करें? वैसे भी ध्वजारोहण या देशभक्ति से जुड़े कार्यक्रमों का हिस्सा बनने वाले हमारे नेता खुद देश के प्रति कितने ईमानदार हैं, यह उनसे जुड़ा हर व्यक्ति बखूबी जानता होगा पर उनपर उंगली उठाने की हिम्मत कोई नहीं कर पाता क्योंकि आज वह इस काबिल बन गये हैं कि देश की आन-बान-शान समझे जाने वाले तिरंगे को लहरा सकें. लेकिन यह काबिलियत उन्होंने कैसे अर्जित की, इसका जवाब हर भारतीय का सिर शर्म से झुकाने के लिए काफी है. अपराधों के आरोप में कानूनी कार्रवाई झेलने वाला व्यक्ति जब खादी धारण कर तिरंगे की डोर खींचता है और देशप्रेम, भाईचारे की बड़ी-बड़ी बातें करता है तो क्या उसमें देशभक्ति झलकती है? शायद नहीं.

पिछले कुछ वक़्त में स्थिति काफी हद तक बदल चुकी है, सुबह उठकर लीडरों की चतुराई भरी बातों को सुनकर खुश होना अब लोग कम पसंद करते हैं. इसके लिए मैं और आप अपने आपको दोष नहीं दे सकते और देना भी नहीं चाहिए. जोश और जज्बे की लौ भी केवल तभी तक जलाई जा सकती है जब तक उसे जार्गत करने के पर्याप्त कारण नजर आते रहें, और मौजूदा वक्त में ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता. जिन लोगों पर देश को चलाने का जिम्मा है वो ही देश को लूटने में लगे हैं, भ्रष्टाचार, मक्कारी, बेईमानी आज आम बात हो गई है. यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मेरा आशय किसी पार्टी विशेष से नहीं है, मैं आजादी के बाद से लेकर अब तक की स्थिति पर केंद्रित हूँ.

चुनाव पूर्व जनता से ढेरों वायदे किए जाते हैं मगर जीतने के बाद उनपर कोई अमल नहीं होता. जिस आतंकवाद की समस्या पर दशकों से राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं वो भी अब तक हल नहीं हो पाई है, आजादी के इतने सालों बाद भी आम भारतवासी खुद को सुरक्षित महसूस करने का साहस नहीं दिखा सकता, क्या इतने सब के बाद भी लाल किले से दिए जाने वाले भाषण को सुनने की जरूरत जार्गत होनी चाहिए? हमारे नेताओं को चाहिए कि वो खुद को महज संबोधनों तक सीमित न रहें, देश के सामने ऐसे उदाहरण पेश करें कि लोग व्यक्तिगत तौर पर उनका सम्मान करने को विवश हो जाएँ.