भाजपा की चुनावी रणनीति में संघ की भूमिका अहम् रहती है, लेकिन जिस तरह से मध्यप्रदेश में संघ सक्रियता दिखा रहा है उससे कई सवाल खड़े हुए हैं. सबसे पहला सवाल तो यही है कि क्या संघ और भाजपा को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की काबिलियत और उनके प्रबंधन पर अब पहले जितना विश्वास नहीं है? ऐसा प्रदेश में संभवत: पहली बार हो रहा है जब संघ ने चुनाव के सारे सूत्र अपने हाथों में लिए हैं. पिछले 15 सालों से भाजपा राज्य की सत्ता में शामिल है. उसकी वापसी में उमा भारती की सबसे बड़ी भूमिका रही थी. लेकिन तिरंगा अपमान मामले में नाम आने के बाद उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा, जिसके बाद बाबूलाल गौर ने कुर्सी संभाली. हालांकि, संगठन की उम्मीदों पर वह पूरी तरफ खरे नहीं उतर सके और अचानक से शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश कर भाजपा ने सबको चौंका दिया. यह सब जानते हैं कि संघ के आर्शीवाद के चलते ही उन्होंने एक सामान्य पदाधिकारी से सीधे मुख्यमंत्री पद का सफ़र पूरा किया. अब जब स्थितियां उनके लिए उतनी अनुकूल नहीं हैं, जितनी कुछ साल पहले थीं तो संघ ने प्रत्याशी चयन से लेकर चुनावी रणनीति तक सभी जिम्मेदारियां अपने हाथों में ले ली हैं.
संघ से भाजपा में आने वाले सुहास भगत और सह प्रचार प्रमुख अरुण जैन दावेदारों के पैनल तय करने का काम संभाल रहे हैं. इन दोनों नेताओं पर ही पूरी चुनावी रणनीति को आकार देने की ज़िम्मेदारी है. प्रत्याशी चयन के मामले में दोनों को फ्रीहैंड दिया गया है. आमतौर पर किसे मैदान में उतारना है और किसे नहीं, इसमें मुख्यमंत्री की राय को भी विशेष महत्व दिया जाता है, लेकिन मध्यप्रदेश में स्थिति एकदम से उलट हो गई है. जानकर इसे भाजपा में शिवराज सिंह के घटते कद के रूप में देख रहे हैं. संघ ने एक रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें ऐसे मौजूदा 77 विधायकों का जिक्र किया गया है जिनका चुनाव जीतना लगभग तय है. जबकि शेष 89 में से संघ 70 चेहरे बदलना चाहता है. इन 70 में कई विधायक मुख्यमंत्री के खास हैं, जिनपर टिकट कटने की तलवार लटक रही है. दरअसल, पिछले कुछ समय से शिवराज सिंह की लोकप्रियता में जबरदस्त गिरावट देखी गई है, इसके अलावा भाजपा सरकार के खिलाफ एंटी इनकमबेंसी का माहौल है. पार्टी में भी एक धड़ा अब शिवराज को मुख्यमंत्री के रूप में देखने को तैयार नहीं है. ऐसे में यदि शिवराज सिंह पर पहले जितना भरोसा दिखाया जाता है, तो पार्टी को आंतरिक कलह और वोट प्रतिशत में नुकसान का सामना करना पड़ सकता है. यही वजह है कि संघ ने चुनाव से जुड़े लगभग सभी अधिकार अपने हाथों में लेकर यह दर्शाने का प्रयास किया है कि शिवराज के प्रति उसका प्यार अब कम हो रहा है.
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शिवराज के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि पार्टी के भीतर ही उन्हें साइडलाइन करने की कोशिशें परवान चढ़ने लगी हैं. एक धड़ा कैलाश विजयवर्गीय को बतौर सीएम प्रोजेक्ट कर रहा है. राजनीतिक पंडितों का तो यहाँ तक कहना है कि विजयवर्गीय ने सुमित्रा महाजन के माध्यम से दिल्ली में अपनी लॉबिंग तेज़ कर दी है. कैलाश और महाजन दोनों इंदौर से हैं और महाजन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गुडलिस्ट में मानी जाती हैं. इस लिहाज से देखा जाए तो कैलाश विजयवर्गीय का पलड़ा भारी हो सकता है. शिवराज के लिए एक और नकारात्मक पहलु यह भी है कि पिछले कुछ समय से प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराध में इजाफा दर्ज किया जा रहा है. भले ही कानून व्यवस्था का ज़िम्मा पुलिस पर हो, लेकिन प्रदेश के मुखिया होने के नाते इसके लिए सीधे तौर पर वह ज़िम्मेदार हैं. हालांकि, शिवराज ने आला पुलिस अधिकारियों को कई मर्तबा फटकार भी लगाई है, ट्रांसफर की धमकी भी दी है, लेकिन पुलिस के मिजाज में कोई ख़ास फर्क देखने को नहीं मिला है. कहा तो यहाँ तक जा रहा है कि पुलिस अधिकारियों को भी यह इल्म है कि मुख्यमंत्री के रूप में इस बार शिवराज सिंह की ताजपोशी मुश्किल है, इसलिए वह उनकी हिदायत और आदेशों को गंभीरता से नहीं ले रहे. वैसे इसके पीछे शिवराज के राजनीतिक विरोधियों का हाथ होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता.
अब जनता के दिल में क्या है, इसका पता तो मतदान के बाद ही चल पायेगा, लेकिन फ़िलहाल तो यही लगता है कि संघ और मोदी-शाह को शायद अब शिवराज सिंह की काबिलियत पर उतना भरोसा नहीं है.